कैथर कला की औरतें – गोरख पाण्डेय


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तीज – ब्रत रखती धन पिसान करती थीं
गरीब की बीबी
गाँव भर की भाभी होती थीं
कैथर कला की औरतें

गली – मार खून पीकर सहती थीं
काला अक्षर
भैंस बराबर समझती थीं
लाल पगड़ी देखकर घर में
छिप जाती थीं
चूड़ियाँ पहनती थीं
होंठ सी कर रहती थीं
कैथर कला की औरतें

जुल्म बढ़ रहा था
गरीब – गुरबा एकजुट हो रहे थे
बगावत की लहर आ गई थी
इसी बीच एक दिन
नक्सलियों की धड – पकड़ करने आई
पुलिस से भिड़ गईं
कैथर कला की औरतें

अरे , क्या हुआ ? क्या हुआ ?
इतनी सीढ़ी थीं गऊ जैसी
इस कदर अबला थीं
कैसे बंदूकें छीन लीं
पुलिस को भगा दिया कैसे ?
क्या से क्या हो गईं
कैथर कला की औरतें ?

यह तो बगावत है
राम – राम , घोर कलिजुग आ गया
औरत और लड़ाई ?
उसी देश में जहाँ भरी सभा में
द्रौपदी का चीर खींच लिया गया
सारे महारथी चुप रहे
उसी देश में
मर्द की शान के खिलाफ यह जुर्रत ?

खैर , यह जो अभी – अभी
कैथर कला में छोटा सा महाभारत
लड़ा गया और जिसमे
गरीब मर्दों के कंधे से कन्धा
मिला कर
लड़ी थीं कैथर कला की औरतें
इसे याद रखें
वे जो इतिहास को बदलना चाहते हैं
और वे भी
जो इसे पीछे मोड़ना चाहते हों

इसे याद रखें
क्योंकि आने वाले समय में
जब किसी पर जोर – जबरदस्ती नहीं
की जा सकेगी
और जब सब लोग आज़ाद होंगे
और खुशहाल
तब सम्मानित
किया जायेगा जिन्हें
स्वतंत्रता की ओर से
उनकी पहली कतार में होंगी
कैथर कला की औरतें

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