ये पता है
ये अच्छा ख़्याल है
शब में हरी दूब पर
बिखरी शबनम को देखना…
इसे क्या कहूँ…
बियाबान जंगल में
सूखे दरख़्त पर अंकुरित पुष्प से मिलना…
ये भी देख लेता हूँ
मेरे ख़्यालों में…
भागती स्त्री का
बस को पकड़ लेने के बाद
चेहरे पर होले से मुस्काना..
तुमने भी देखा होगा
आते जाते ऐसा ख़्याल
बारिश के बाद पेड़ के नीचे
सिगड़ी पर मक्का सेकती हुई लड़की को…
शान्त नदी में कंकण मारने जैसा है ये ख़्याल
पर मेरा ये ख़्याल सबसे ख़ूबसूरत था
जब में शाम में छत पर खड़ा सुनता
आकाश में उड़ते, घर लौटते
परिंदो के समूह से उठता संगीत….
इसे ख़्याल कहो या कविता हुई… ये आपका ख़्याल है
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- TAGS ― कविता का ख़्याल, भारद्वाज दिलीप
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