लक्ष्मी घर की बहू होती है


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खांसी, छींक, गर्भावस्था की तरह प्रेम को भी छिपाया नहीं जा सकता हैI इस नियम-धरम के तहत कहीं न कहीं से लोकराम को भी अपने बलुआ के परेम के बारे में पता चल गया थाI बुरी तरह से सदमिया गया था वहI धड़कने बढ़ गयी और पैर भी कांपने लगे थेI खबर इतनी बड़ी थी कि कमली से छिपा भी नहीं सकता थाI ‘कमली’ बोले तो उसकी घरवाली, अर्द्धांगिनी, मेहरारू या पत्नीI

वह भागते कदमों के साथ घर आया और सुपत्नी के सामने साहेबजादे की प्रेमकथा बखान कर दीI कमली पर तो मानो एक नहीं सातों आसमान फूट पड़ेI मनमंदिर में खलबली मच गयीI आखिर बरसों से इस दंपत्ति ने अपने बेटे के लिए अथक परिश्रम किया थाI प्रधान और प्रधानाचार्यों को खरीदकर अपने प्यारे बलुआ को बचपन से पास करवायाI कालेज और संस्थानों का निर्माण करके उसे हाईब्रिड डिग्रियां दिलवाईI कठिन से कठिनतर तैयारियों की मशीन से उन्होंने ‘बलुआ’ को डा.बलराम में ‘कन्वर्ट’ करके निकाला था ।

ऐसे कष्टयुक्त और त्यागमयी तैयारियों के बाद बलुआ के ‘अफेयर’ से होने वाले महादुःख को कौन रोक सकता था? वह भी तब जब कि सुदहेज़ के लम्बे इन्तजार की घड़ियाँ ख़त्म होती दिख रहीं थींI इसका फल मीठे के बजाय करेले जैसे होगा, कभी सोचा नहीं था कमली नेI आलमारी के कवर के नीचे कोने में ‘डिमांड’ वाले सामानों की लिस्ट भी तैयार रखी थीI यह अलग बात थी कि सूची जस की तस नहीं रहती थीI काल, फैशन, मँहगाई और बलुआ की बढ़ती डिग्रियों के हिसाब से इसमें संशोधन का श्रम भी चलता रहताI मसलन, कुछ वर्षों पहले सूची में जिस क्रम पर पंखा लिखा था वहां पर कूलर हो गया थाI लेटेस्ट लिस्ट में इसे पुनः हटा कर ए.सी. लिख दिया गयाI ठीक ऐसे ही जो रेडियो था वह बदलकर साधारण टी.वी से रंगीन टी.वी. फिर एल.ई.डी. हो गयाI कैश का क्या कहना वह तो मुद्रास्फीति और उधारी पर सूद के दर से दस कदम आगे ही बढ़ता गयाI हजार, लाख अब करोड़…I

तो ऐसे संघर्षों को झेलने के बाद उसने पूरी तरह से तैयार अपने चेक के बाऊंस होने की खबर सुनी तो चीख पड़ी, “हमार बलुआ?…आपन बलुआ? बिना हमरा से पूछे परेम कर लिया?… माई-बाप का इतना भेइज्जती? अरे, ढाई अखरवा का परेम ही तो था… पूछ लेता… हम्म मना थेाड़े ही करने जा रहे थे। बस लड़की कौन सी हो, हम्म बता देते…I”

कमली की आवाज इतनी तेज थी कि इस उर्जा का प्रयोग बिजली पैदा करने में किया जाता तो एकाध गाँवों की बिजली की कमी दूर हो जातीI सात्विक बोलों के बाद उसका सिर गर्म हो गया था। वह दनदनाते हुए बलुआ के कमरे में गयी और बिफर पड़ी, “ई का कर दीया तुमने हो ?… अरे, मेरे से राय तो ले लेता? जो सपना हम इत्ते दिनों से संजो रहे हैं ऊ कहाँ जायेंगें रे?­­…कौन है ऊ?…कलमूँही… मुफत में तोहरा के ले लेही का?”

चीखते समय कमली के मुँह के अन्दर का एक–एक भाग आसानी से देखा जा सकता थाI तालू से लटकता हुआ मांस का टुकड़ा, जीभ का उद्गम स्थल, बचे हुए दांत, उसमें लगे कीड़े आदिI कमली अपनी मातृभाषा में ही बोलती पर आधुनिक दिखने के चक्कर में खड़ी बोली को कभी-कभार पकड़ लेतीI

“माँ, वह पढ़ी-लिखी है…I”

“अरे भेवकूफ़…उसकी पढ़ार्इ का अचार डालेंगें हम्म्म?…पूरे घर को अपनी उँगली पर नच्चायेगी उ…इत्ता पैसा तुम्हारे पर खर्च किया है…ऊ कहाँ से आएगा?… तू तो कबर खोद डाला है रे हमरी…।” कमली का मुँह लाल हो गया था। चेहरा देखते ही उसके लाल ने ढाँड़स बंधाया- “माँ, उसके माँ-बाप ने भी तो पैसे खर्च करके उसे पढ़ाया हैI”

“ई लौ… अबे से जोरू का गुलामी सुरू तोहार… तौ का करें… हाँ… वो आकर हमारे बंगले में मुफत में ही तौ रहेगीI जिंदगी भर फीरी का खाना–पीना, कपड़ा–लत्ता, घूमना-वूमना चलते रहेगा… (कमर पर जो हाथ था अब हवा में चमका)… मालकिनो बन जाई ऊ हो… देख तनीI”

“अरे माँ क्यूँ प्रेशान होती हो? आप बी तो इस घर में सादी करके आयी थींI ऐसे वो भी आ रही है, बसI”

“मेरे से भराभरी तूं करेगा… मेरे बाबू जी ने तो अपना सोनपुर वाला पलाटवा बेच के पूरी घेरस्ती का सामान दिया था… भिखमंगे तनी हम न आईल रहलीं… समझ्लाI”

बलराम मुस्कुरा पड़ाI उसने माँ के कन्धों पर हाथ रखकर कुछ ऐसे भाव दिखाये कि कोई राज की पोटरी खोलने जा रहा हो, “देख माँ, वह अपने माँ-बाप की इकलौती लड़की है। उनका अपना बंगला हैI”

इतना सुनते ही कमली के माथे की लकीरों में से कुछ तो गायब हो गयीं थीं पर मन में तांडव नृत्य अभी भी चल रहा थाI बलराम ने इस नृत्य को ख़त्म करने के लिए अब पूरा रहस्य खोला, “…और सुन, तुम्हारी लिस्ट वाला सामान तो बिना मांगे ही मिल जायेगा माँ…जरा सोच,(आँखें चमक जाती हैं) वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करती हैI हर महीने सवा लाख का उसका वेतन भी तो अपने ही घर आयेगा। जिंदगी भर माँ… जिंदगी भर… जरा सोच, सामान तो क्या, तुम तो सामान की दुकान भी खोल लेना… बोल अब कैसी रही… बोल?”

कुछ पलों के लिए कमरे में शांति छा गयीI इतनी कि एक सूई भी गिरती तो आवाज आ सकती थीI ऐसे मीठे धक्के से कमली का मुँह खुला रह गया। आँखेां में खुशी की तरलता आ गयी। माथे के सारे बलों और बालों को हटाते हुए अपने बलुआ की जी भर के बलायें लीं उसने। पीछे खड़े  लोकराम ने भी बेटे को गले लगा लिया I

अगले दिन कमली ने अपनी सहेलियों की पार्टी में बड़े क्रान्तिकारी अंदाज में कहा,  “देखिये, मैं तो धेज बीरोधी हूँ। अपने बेटे की सादी पढ़ी-लिखी कन्या से पक्की कर दी हूँ। धेज की कोई माँग नहीं की है…पढ़ी-लिखी दुल्हन ही दहेज है मेरे लिये़…।” इसके बाद कमली ने हाथ जोड़कर मुस्कुराते हुए सभी को देखाI तेज तालियाँ बज उठींI समाज-सुधार के इस कदम के लिए लोकराम को दफ्तर में सभी ने शुभकामनायें दीं। कुछ दिनों बाद दफ्तर के एक समारोह में उसे सम्मान-पत्र से भी नवाज़ा गयाI

इंद्रजीत कौर की अन्य रचनाएँ।

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