मेरे हिस्से का बसंत – शिफाली


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मेरे हिस्से का बसंत
भेजती हूँ तुम्हे
तुम जो अंजूरी भर भर
मेरी तरफ कड़ी धूप फेंका करते हो

मेरे हिस्से का इत्मीनान
भेजती हूँ तुम्हे
तुम जो जीतने हारने में
गंवाए बैठे हो
वो एक लफ्ज़
जो दरिया किनारे
मिलता है
सीप में बैठा मोती हो जैसे

मेरे हिस्से का जुनून भेजती हूँ तुम्हे
तुम जो भूल गए हो
खुद से जूझना ,
लड़ना अपनी खामियों से
खुद को बार बार
सवालों के दायरे में लाना
मांजना हर रोज़ खुद को
किसी भरम में ना आना

मेरे हिस्से की
खामोशी भेजती हूँ तुम्हे
कि तुम चीखते रहे
दुनिया को अपने झूठ का यकीन दिलाने
और भूल गए
दुनिया यकीन कर भी ले
पर उस अदालत में तो
सिर्फ खामोशी सुनी जाती है

मेरे हिस्से भी जो ना आया
वो बेहिसाब प्यार भेजती हूँ तुम्हे
नफरत की नस्लें हैं
रास्ते पर बिछाए जाते ख़ार
गालियां, सरहदें और बेहिसाब खून
प्यार की पौध
तो सांस छोड़ती
धरती की दरारों में ऊग आती है
जख्मी हाथों में मुस्कुराती है
प्यार,
जिद्दी बाढ से जूझता
वो पुल है
जिस पर खड़े होकर
दो प्रेमियों ने
क्षितिज से उम्र भर का साथ नहीं
एक लम्हे की मोहलत मांगी है।

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