इस सिनेमा पर कुछ लिखें उससे पहले हमको बचपन का एक कहानी याद आ रहा है। होली के आसपास का दिन था। उन दिनों में हमारे इलाक़े में भांग वाला बर्फी (मिठाई) मिलने लगता है। हमारी बचपने वाले उम्र थी, तो हमें क्या पता, हम मिठाई की दूकान पर गए अपने एक दोस्त के साथ पेंडा लेने, दोस्त ने कहा कि वो वाला बर्फी लो, बहुत टेस्टी होता है। हमको भी वो बर्फी देखने में पहले से थोड़ा अलग और टेस्टी लगा तो मन किया कि चलो आज नया ट्राई किया जाए। उस वक्त आज कुछ तूफ़ानी करते हैं वाला एहसास ही था। फिर क्या था हमने पैसा देकर चार बर्फी ख़रीद लिया, दो हम खाए और दो अपने दोस्त को खिला दिए। हमारा दोस्त उस मिठाई का स्वाद पहले भी ले चुका था लेकिन मेरा वह पहला मौक़ा था। जो लोग भांग का सेवन कर चुके होते हैं वो यह बात भलीभांति जानते हैं कि इसका नशा चढ़ता धीरे-धीरे हैं लेकिन उतरता बड़ी देर से है। इंसान रहता ज़मीन पर ही है लेकिन उसे पता नहीं क्या-क्या भ्रम होता रहता है और वो इस भ्रम को ही हकीकत मान लेता है। कभी वो खाता है तो खाते ही जाता है, कभी वो उड़ने लगता है, कभी ज़मीन में समाने लगता है, तो कभी कुछ और कभी कुछ! वैसे सुना तो यह भी गया है कि कुछ कुछ लोगों के दिमाग में भांग का नाश ऐसा बैठ जाता है कि वो पूरा जीवन उतरता ही नहीं है और वो पागल हो जाता है। हम नादान बालक इन बातों से अनभिज्ञ थे, इसलिए इसे खाने के लगभग आधे घंटे के बाद हम तालाब में कूदकर नहाने लगे। नहाते-नहाते हमको पता नहीं क्या हुआ कि पानी के भीतर जाके बैठ जाने का मन करने लगा। हम ऐसा करने ही वाले थे कि फिर ऐसा लगा जैसे हवा में उड़ रहे हैं, कभी ऊपर तो कभी नीचे। हम जल्दी से वहां से दौड़ते हुए घर भागे और घर आते हुए ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे हमको कोई बहुत बड़े झूले पर बैठके ज़ोर-ज़ोर से झूलाए जा रहा है। हम बहुत डर गए। घर में रोना-धोना मच गया। दादी छाती पीटकर रोने लगी, उसे लगा कि मुझे किसी भूत ने पकड़ लिया है। पूरा गांव लगभग इक्कट्ठा हो गया और ओझा बुलाने की बात चलने लगी कि मेरे उस दोस्त ने यह महान राज़ खोला कि भांग वाली बर्फी खाया है! फिर वैद्य जी आए और एक सुई दिए और हम थोड़ी देर में सो गए और जब जागे तो ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही नहीं है बल्कि हमने कोई बहुत भयंकर सपना देखा है।
अब ज़रा सोचके देखिए कि अगर पुरे कुएं में भांग घोल दी जाए और उसे हर आदमी पी ले और उसका नशा कई साल तक न उतारे, तब क्या होगा? ऐसा ही नाश समय-समय पर विश्व को होता रहता है और फिर सोचना क्या है, जो कुछ आजकल हो रहा वो क्या है? फिल्म (परीक्षा) के एक दृश्य में विद्यालय में पढ़ने हेतु टेस्ट लेते हुए शिक्षक बच्चे से सवाल करते हैं कि फ्रांस की क्रान्ति कब हुई थी और उसका उद्देश्य क्या था? बच्चा जवाब देता है – 1789 से 1799 तक, और इसका उद्देश्य था Liberty (आज़ादी), Equality (बराबरी) and Fraternity (बंधुत्व)। अब यह आज अलग से बताने और बार-बार दुहराने की ज़रूरत है कि फ़्रांस की यह पहली क्रांति थी जो Republic (गणतंत्र) की स्थापना के लिए हुई थी। आज पूरी दुनिया लोकतंत्र या गणतंत्र मानने का दावा तो करती है लेकिन क्या वो सच में इस तीन शब्द आज़ादी, बराबरी और बंधुत्व के मजबूत करने के लिए काम कर रही है? अधिकांशतः रूप से इसका सीधा सा जवाब है – नहीं। बल्कि हो इसके एकदम विपरित रहा है। पूरी दुनिया को आज हम और वो में बांटने की ना केवल पुरज़ोर कोशिश चल रही है बल्कि इसमें कामयाबी भी मिल रही है, जिसकी क़ीमत समय-समय पर दुनिया ने लाखों निरीह जानों को गवांकर चुकाई है। वो चाहे प्रथम विश्वयुद्ध हो या फिर द्वितीय या देशों का आपसी झगड़े या फिर देश के भीतर के आपसी विवाद। यहां अमीर और ज़्यादा अमीर हो रहे हैं और ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब और सरकारें ग़रीबों की हितैषी होने का दिखावा करते हुए अमीरों की गोद में बैठी तरह-तरह के प्रपंच रच रहीं हैं। न सामंतवाद समाप्त हुआ और न पूंजीवाद और इसके समाप्त हुए बिना आज़ादी, बराबरी और बंधुत्व की बात करना बेईमानी है; वर्ग की तो बात ही करना फ़िलहाल बेकार है क्योंकि उसके बीच की खाई दिन प्रतिदिन और ज़्यादा चौड़ी ही होती जा रही है और जहां तक सवाल भारत का है तो यहां तो जाति, धर्म, सम्प्रदाय, पेशा और पूंजी के असंख्य रोग पहले से ही भरे पड़े और कमाल की बात तो यह कि अब तो सरकारें भी इन रोगों को बढ़ाने में पुरज़ोर सहायता करने में लगी है। अब जहां तक सवाल जनता का है तो वो तो भेंड हैं जो दूसरों की ठण्ड के लिए अपनी पीठ पर ऊन की फसल ढोती है और इसे ही वो अपना सार्थक जीवन मानती है – आश्चर्य है! और जिनके ऊपर इन्हें जगाने-जागने की ज़िम्मेदारी थी वो बेचारे आज हज़ारों रोगों के शिकार होकर दवाई फांक-फांकर बाबा आदम के ज़माने के बहस में उलझे हैं।
मैंने ऊपर आपको भांग की कथा इसलिए सुनाई थी। वो भांग मैंने ग़लती से खाई थी लेकिन आज लोग जानबूझकर न केवल खाए जा रहे हैं बल्कि हवा में उड़ रहे हैं और इसे ही जीवन मान रहे हैं। अब कोई नशे को ही जीवन मान ले फिर उससे कुछ कहना भैंस के आगे बीन बजाने से भी कठिन तपस्या का काम है!
प्रकाश झा का सिनेमा एक सामाजिक सरोकार का सिनेमा रहा है। उनकी कोई भी फिल्म उठाकर देखिए उसमें सामजिक सरोकारता की दृष्टी साफ़-साफ़ देखी जा सकती है। हालांकि कई बार वो भी स्टार के चक्कर में फंस जाते हैं फिर भी उनकी यह फिल्म प्रतिभा को अवसर प्रदान करने के लिए चोर बन जाने की दारुण और हृदयविदारक कथा कहती है। आपको इसका एक दृश्य ओ हेनरी की कहानी की याद भी दिलाएगी, अब वो दृश्य कौन सा है और कहानी कौन सी है वो आप ख़ुद खोजिए। वैसे भला हो फिल्म में आए एसपी नामक चरित्र का कि वो अपराधी से नहीं बल्कि अपराध और उसके कारण को समझने की चेष्टा करनेवाला एक संवेदनशील इंसान निकलता है वरना तो आजकल ज़रा-ज़रा ही बात पर किसी की मॉबलिंचिंग जैसा कुकर्म हो जाना, एक हज़ार केस ऊपर से थोपकर जेल भेज देना, आत्मसमर्पण करने के बाद भी मुठभेड़ में हत्या हो जाना जैसे कोई बात अब घटना ही नहीं रह गई है। अब तो ऐसी घटनाएं ख़बर भी नहीं होतीं। होती भी हैं तो एक दिन के लिए फिर कल कोई दूसरी सनसनीखेज ख़बर चला दी जाती और पहली ख़बर से हमारा ब्रेनवॉश हो जाता है। यह हमारा न्यू और महान नॉर्मल है। हमें आज़ादी, बराबरी, बंधुत्व की तरफ क़दम बढ़ना था लेकिन हम आज किस तरफ बढ़ रहे हैं वो हम सबको अच्छे से पता है और अगर अब भी नहीं पता तो यही कहा जा सकता है कि आप धन्य है, आपका भविष्य उज्ज्वल है, आपकी जय हो!
आज पता नहीं हम कौन से अहम् ही तुष्टि में लगे हैं और इससे हासिल क्या होगा। वो हमें चारा रहें हैं और हम चर रहे हैं लेकिन सनद रहे कि कॉलर उंची तभी शोभा देता है जब पेट भरा रहे और जेब में कुछ पैसे हों, बेरोजगारों की लम्बी फौज आज नहीं तो कल सवाल करेगी ही और अगर नहीं किया तो उसके बाद जो अराजकता फैलेगी उसकी ज़िम्मेदारी लेने को भी तैयार रहिए हुज़ूर। आनेवाली पीढ़ी सवाल तो ज़रूर ही करेगी, इतिहास किसी को नहीं छोड़ता वो चाहे राजा हो या रंक हो या फ़क़ीर ही क्यों ना हो। वो बाबा कबीर कहते हैं ना कि –
आया है सो जाएगा राजा रंक फ़क़ीर
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बांधे जंजीर।
इससे पहले भी प्रकाश झा शिक्षा के मुद्दे पर सत्याग्रह बना चुके हैं लेकिन वो स्टार लोगों के चक्कर में फिल्मी ज़्यादा हो गया था, यहां अभिनेता लोग हैं तो यहां यथार्थवाद और सत्य का पलड़ा भारी है। मुख्य भूमिका में Adil Hussain हैं, अब जो लोग भी आदिल को जानते हैं उन्हें पता है कि आदिल न केवल एक बेहतरीन अभिनेता हैं बल्कि एक संवेदनशील इंसान और शानदार अभिनय प्रशिक्षक भी है। नाटक ऑथेलो : ब्लैक एंड वाइट में निभाई उनकी भूमिका आज भी मेरे मन में जस का तस अकिंत है और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उनके द्वारा पढ़ाया हुआ अभिनय आज भी हमारा मार्ग प्रसस्त कर रहा है। बाक़ी अन्य भूमिकाओं में भी ज़्यादातर रंगमंच से जुड़े अभिनेता ही है। मतलब कि धीरे-धीरे एक बात तो एकदम साफ़ होती जा रही है कि अगर अभिनय चाहिए तो आपको अभिनेता के पास ही आना होगा बाक़ी के काम के लिए स्टार और स्टार के बच्चे उपलब्ध तो हैं हीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनमें से भी कुछ बेहतरीन अभिनेता हैं लेकिन सवाल तो यही बनता है न कि जिसने जीवन में कभी रिक्शा ढंग से देखा नहीं वो क्या ख़ाक रिक्शेवाले का अभिनय करेगा और करेगा भी तो सब मामला ऊपर-ऊपर का ही होगा। लेकिन कुल मिलाकर बात यह कि यहां भी उसी को देखने में मज़ा आता है जो अपनी मेहनत, लगन, इमानदारी, तकनीक से गढ़ना सीखता है और अवसर मिलने पर (जिसका मिलना रेत में सुई के तलाश जैसा ही है) पिल पड़ता है पूरी इमानदारी से।
हां, एक बात और है जो इस फिल्म को देखते हुए गौर करना चाहिए, वो है पुलिसवाले। एक पुलिसवाला इस फिल्म में भी है जो यह बताता है कि पुलिस की असली भूमिका क्या होती है, वरना तो गंगाजल छिड़ककर शुद्ध करने की कथा भी झा जी बना ही चुके हैं। बहरहाल, फिल्म पर उतनी ही बात की जानी चाहिए कि उसके अनदेखे होने का स्वाद बना रहे, तो अब इति। यह सिनेमा देख लीजिए और दिखा दीजिए – यह महान, क्लासिक और कल्ट हो या ना हो लेकिन आवश्यक सिनेमा तो है ही। बाक़ी लगभग हर घर में बच्चे पढ़ ही रहें हैं, ख़ुद ही देख, सोच, समझ लीजिए कि इस देश में कौन सी पढ़ाई का क्या आलम है और फिर भी मन न भरे तो किसी दिन किसी सरकारी विद्यालय के दर्शन कर आइएगा, ईमानदारी से देखने की कोशिश कीजिए कि हमारे शिक्षा पद्धति को आख़िर हुआ क्या है; भ्रम दूर हो जाएगा और अगर तब भी कुछ फ़र्क न पड़े तो एक बार इलाज ज़रूर कराना चाहिए क्योंकि भांग का नाश अपने शबाब पर है! बाक़ी सही शिक्षा वो है जो शालीनता के साथ सवाल करना सिखलाता है, आँख में आँख डालके बात करना सिखाता है; बाकी सब हवा है और हवाबाज़ों की हवा एक न एक दिन निकल ही जाती है। हल्का सा पंचर हुआ नहीं कि सब फुस्स-स-स! मेहनत, लगन, प्रतिभा और तकनीक की बात तो है लेकिन एक बड़ा मामला अवसर का भी होता है और सबको समान अवसर मिले इसे सुनिश्चित करना किसी भी लोकतांत्रिक और प्रजातांत्रिक व्यवस्था की प्राथमिक आवश्यकता होती है बाक़ी इसको उसको लड़ाकर राज तो अंग्रेज भी किए ही हैं सैकड़ों साल इस देश पर।
बाक़ी एक व्यक्तिगत बात लिखने से अपने को रोक नहीं पा रहे हैं कि इस फिल्म में मित्र Ravi Mukul और किलकारी बिहार बाल भवन, पटना के बच्चों को देखकर बड़ा ही सुख का अनुभव हुआ – मेहनत एक न एक दिन रंग लाती ही है। Kilkaribiharbalbhawan Patna के बच्चे दिन-प्रतिदिन नए-नए प्रतिमान गढ़ रहे हैं इसके लिए किलकारी की पूरी टीम को बधाई।