सुबह टीकम की दुकाँ से जाकर
इक ज़पाटा पतंग खरीदी थी
रगड़-रगड़ के कांच का रोगन,
खूब मांझे को फिर पकाया था।
झट से एक पल में ही सूरज को छुआ था उसने,
जाने कब ढील मिली, हाथ ज़रा सा फिसला,
आके सद्दी से उड़ा दी उसने।
इक ज़पाटा पतंग खरीदी थी
रगड़-रगड़ के कांच का रोगन,
खूब मांझे को फिर पकाया था।
झट से एक पल में ही सूरज को छुआ था उसने,
जाने कब ढील मिली, हाथ ज़रा सा फिसला,
आके सद्दी से उड़ा दी उसने।
आज फिर छत पे आसमान को बुलाया है,
रगड़-रगड़- के कांच का रोगन
खूब मांझे को पकाया है मगर
दुबारा कौन छुट्टी देगा इन पतंगों को