प्रवासी परिन्दे


Notice: Trying to access array offset on value of type bool in /home/u883453746/domains/hindagi.com/public_html/wp-content/plugins/elementor-pro/modules/dynamic-tags/tags/post-featured-image.php on line 36
वे घुड़सवारी करते हैं बर्फीली हवाओं के अश्वों की,
अपनी चहक फूंकते हैं विश्व के सबसे ऊंचे पर्वतों के बूढ़े कानों में और
हज़ारों मील चले आते हैं बस दिशाओं पर भरोसा कर

भरोसा कभी चूकता नहीं, ये उनसे बेहतर कोई नहीं समझा सकता

जब वे सुनते हैं कि मुई जी.पी.एस बड़ी नयी ईजाद है दिमागवालों की
वे एक साथ एक तिरछी मुस्कान उछालते हैं, अपने परों को खुजलाते हैं
और साइबेरिया से उड़ान भरते हुए आ बैठते हैं हिन्दुस्तान के उसी जंगल की उसी शाख पर
जहां वे पिछले जाड़े में आ बैठे थे
चूक शब्द के मायने वे नहीं जानते

वे अकेले नहीं आते
साथ में बाँध लाते हैं ढेरों किस्से एक बर्फ के देश के
अगर कभी बूझ सको इन पंछियों की भाषा
तुम सुनोगे लोक कथाएं साइबेरिया की
मैना, कबूतर और गौरैया हैरत से सुना करते हैं कि
होता है एक बर्फ का देस जहां केवल प्रेम की गर्माहट होती है और
सर्द इग्लू के भीतर सिर्फ मन सुलगते हैं

हमारा पीपल जानता है स्लेज वाले बूढ़े और मेंढकी राजकुमारी को
ठीक वैसे ही रूस के दरख़्त हीर और रांझे को खूब पहचानते हैं
दरअसल उनके परों पर किस्से सफ़र करते हैं
हमने कबूतर के सिवाय किसी को डाकिया नहीं माना
ये हमारी ज़हानत नहीं बल्कि नादानी है

उनकी चोंच में टंगे होते हैं चिल्का के ख़त जो उन्हें बैकाल को सौंपने हैं
उनके पंजों में दबे होते हैं कुछ रंग-बिरंगे पंख जो
तोहफा हैं किसी झक्क सफ़ेद नन्हे ध्रुवीय भालू के लिए
उनके पंखों पर बेतरतीब पड़े हैं कुछ स्पर्श जो
स्मृतियाँ बनेंगे विरह के मौसमों में
कि उन्हें मिले केवल दो ही मौसम संग के

उनका विरह से जलता दिल ग्रीष्म बनता है और
उनका छलछलाये नेत्र तब्दील होते है बरसात के मौसम में
वे नहीं आते जाड़े से घबराए हुए
ये तो दिमागदारों की एक बेदिल-सी खोज भर है

वे तो उड़े चले आते हैं क्योंकि
किसी अमलतास की डाल पर मन बिंधा रह गया है
किसी हंसिनी की आंखों में जान अटक कर रह गयी है
किसी झील की लहर पर एक प्यास मचलती छूट गयी है
वे तो उड़े चले आते हैं क्योंकि
पिछले मौसम की कोई कसम पुकारती है
कोई छूटा हुआ साथी मुसलसल याद आता है
मन्नत का वो लाल धागा बारहा कसकता है

वे तो उड़े चले आते हैं क्योंकि
सुन्दर मौसमों वाले एक नगर में झील के किनारे
उनकी बीते जन्मों की एक साथिन
उनकी प्रतीक्षा में बैठी कवितायें लिखती है

Share
Pin
Tweet
Related

दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर। अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ खत्म हो चुका है उपन्यास बहुत सारे अपरिचित चेहरे बहुत सारे शोरों में एक शोर एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता वह

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: