सुनता हूँ इस्तम्बूल की व्यथा शब्दों के परे है,
सुनता हूँ भुखमरी अनेक ज़िन्दगियों की फ़स्ल काट रही,
सुनता हूँ क्षयरोग चारों ओर फैला है।
सुनता हूँ छोटी दुधमुँही लड़कियाँ
एकान्त गलियों में, सिनेमा घरों में जा बैठ रहीं !
दूर मेरे नगर से बुरी-बुरी ख़बरें चली आ रहीं —
मेरे नगर में जहाँ ईमानदार, मेहनती, ग़रीब जन रहते हैं —
वे ही हैं इस्तम्बूल।
प्रिये, इस नगर में ही रहती हो,
यह नगर
अपनी पीठ पर मैं सदा ढोता हूँ, गठरी में बाँध लिए चलता हूँ,
जहाँ-जहाँ निर्वासित किया जाता, जहाँ-जहाँ कारा में रखा जाता
उसे अपने दिल में, मैं बच्चे की मौत के
तीखे दर्द-सा लिया फिरता हूँ।
यह नगर
आँखों में तुम्हारे रूप की तरह तिरता ही रहता है।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : चन्द्रबली सिंह
Poem by Nazim Hikmet