सारा दिन


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तुम्हारी आँखें कुछ बोलती रहीं

आज सारा दिन

सूरज मेरे कंधे पर सवार रहा

आज सारा दिन

खूँटी से टँगे कोट में

सारी रात चाय की एक चुस्की ठिठुरती रही

दीवार पर टँगे नक़्शे से

आज सारा दिन

एक छूटी हुई ट्रेन

और तुम्हारा शहर

किसी जंगली बिल्ली की आँख-सा चमकता रहा

आज सारा दिन

स्टेशन पर उद्घोषिका हिमालय वाया संगम दुहराती रही

एक लड़की बारिश में बेख़बर भीगती रही और

मेरे हाथों में अमृता प्रीतम की ‘दो खिड़कियाँ’

आज सारा दिन

तितलियाँ मेरी नसों में फड़फड़ाती रहीं

अख़बार के दफ़्तर में

एक गुमशुदा ख़बर चक्कर लगाती रही

आज सारा दिन

कुछ ग़ैरज़रूरी-सा धड़कता रहा

मैं देह वाली स्त्री नकारती रही

ख़ुद को तलाशती रही

आज सारा दिन

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