सफ़र ए लखनऊ


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“हाँ मुरब्बा है, अचार है, नमकपारे हैं खस्ता है, ये लो, नाश्तेदान का एक डब्बा तो ख़ाली है। दुल्हनsss किधर हो, ज़रा हुजरे से बाहर आओ।”

सुरैया बेगम ने पान की गिलौरी मुंह में दबाये हुए पुकारा।

“अरे मेरे जाने की ख़ुशी में बेहोश हो गयीं क्या शराफ़त अली की माँ?” सुरैया बेगम ने तानों की तीर छोड़ी तो शराफ़त अली ने फुर्ती से लपक लिया, बोले

“दादी, अम्मी अब्बू उधर कमरे में हैं, उनकी छोडो आप निकलो फ़ौरन। ट्रेन छूट जाएगी लखनऊ वाली। फिर अपनी खाला को देख भी नहीं पाओगी आप।”

“ऐ शराफ़त अली, तेरी ज़बान के आगे खंदक।”

पोते को लताड़ लगाते हुए वो कमरे में पहुँच गयीं। देखा तो उनके इकलौते बेटे महबूब अली अपनी अहलिया को दवाइयां खिला रहे थे। सुरैया बेगम ने लपकते हुए कहा,

“ऐ महबूब अली बुढ़ापे में ऐसे चोंचले नहीं सजते। माँ जा रही है और तुम बीवी लेके बैठ गये हो। इसीलिए, मुहब्बत की शादियों से मुझे बैर है, अरे सारी जिंदगी लैला मजनूं बने रहोगे क्या मियां?

महबूब अली हंसी रोकते हुए बोले, “अम्मा कब तक मुझे मुहब्बत के ताने देती रहेंगी? देखो भई शराफ़त अली मेरी तरह तुम इन चक्करों में न पड़ना, अम्मा राज़ी नहीं होंगी, बताये दे रहा हूँ।”

“अम्मा राज़ी नहीं होंगी, हुन्ह! .. अच्छा सुनो दुल्हन, ज़रा कुछ मीठा रख दियो नाश्तेदान में, सफ़र का मामला है न जाने क्या तबियत चाहे, हैं।”

कहती हुई सुरैया बेगम कमरे से निकल आयीं, सारा इंतज़ाम हो चुका था।

“अल्ला हिफ़ाज़त करना मेरे घर की।” दुआएं बुदबुदाते हुए उन्होंने बेटे बहु को कंधे से लगाया और गाडी में बैठ गयीं। रस्ते में ट्रैफिक की मार झेलते हुए, ख़ुदा ख़ुदा करके शराफ़त अली के साथ स्टेशन पहुँचीं तो मालूम हुआ ट्रेन प्लेटफ़ॉर्म से लगी है। खैर किसी तरह हांफते कांपते पुल की सीढियां चढ़ते वो आख़िर ट्रेन में चढ़ ही गयीं।

“हाय इत्ती भीड़ है, जाने बैठने को जगह मिलेगी या नहीं? उन्होंने फूली साँस सँभालते हुए कहा।

“अरे रिज़र्वेशन है दादी, जगह क्यूँ नही मिलेगी? ये रही आपकी सीट।” शराफ़त अली बोले तभी सुरैया बेगम की छोटी सी मोबाईल में अज़ान होने लगी।

“अब ये कैसा रिंगटोन लगवा रखा है आपने? देखिये कोई फ़ोन आ रहा है।”

“अरे बेटा, तो क्या तुम्हारे बाप की तरह फ़िल्मी गाने लगवा लूँ इस उमर में?” बोलते हुए उन्होंने चश्मा दुरुस्त किया, देखा तो मोबाईल में हिंदी फॉन्ट में भाईजान लखनऊ लिख कर आ रहा था। उनका दिल एकबारगी धडक उठा, कहीं खाला दुनिया से रुखसत तो नहीं हो गयीं? घबराकर फोन रिसीव किया तो उधर से लखनउ वाले भाईजान की तेज़ आवाज़ आई।

“हलो सुरैया, अरे कहाँ पहुंची?”

“अभी तो ट्रेन रेंगी भी नहीं है भाईजान, घर पे सब खैरियत है न? वो सकपकाते हुए बोलीं।

“अभी तो खैरियत है, मैं तो इसलिए पूछ रहा था, वो जो राफ़िया फूफ़ी थीं न, मरहूमा, उनके ससुराल से कुछ लोग आ रहे हैं देखने अम्मा को। खाने का इंतज़ाम करवाना पड़ेगा न, एक वक़्त तुम दोनों पहुँचते तो इधर आसानी रहती।”

भाईजान ने असल नुक्ता बताया तो उन्होंने राहत की सांस ली। चिकन के काम वाले बड़े से दुपट्टे में लिपटा उनका नाज़ुक वजूद खिड़की के पास सिमट गया था।

ट्रेन धडधडाती हुई भागी जा रही थी। मुसाफ़िर अपनी दिलचस्पियो में मसरूफ़ हो चुके थे। सामने वाली सीट पे एक शादीशुदा जोड़ा बैठा था। उन दोनों का हर अंदाज़ चीख़ चीख़ कर बता रहा था कि अभी क़िस्सा एकदम तरोताज़ा है। दोनों का एक दूसरे के हाथों को बार बार थामना, लड़की के कुछ फुसफुसा कर बोलने पर लडके का फिस्स फिस्स हंसना। उफ़ अल्लाह।

सुरैया बेगम की नज़र न चाहते हुए भी सामने दौड़ जा रही थी। आख़िर वो कब तक सब्र करतीं? उन्होंने सफ़री पानदान खोला, एक नन्हा पान मुंह के सुपुर्द किया और उस लड़की से बोलीं

“बीबी, हम कहते हैं थोडा रस्ते का खयाल कर लो। लड़के तो होते हैं पैदायशी कमअक्ल, तुम तो थोड़ी समझदारी दिखा लो, हैं? अरे ऑंखें दुःख गयीं खिड़की के पार देखते देखते।”

उनकी नसीहत सुन कर उस जोड़े के बजाय शराफ़त अली चनचना उठे, धीमे से किचकिचाये

“दादी चुपचाप रहिये न, कौन क्या कर रहा है आपको इससे क्या मतलब?

“ए लो मतलब क्यूँ नहीं? सुरैया ने कोई ग़लत बात बर्दाश्त नहीं की। सब जानते हैं इस बात को।” उन्होंने पान की गिलौरी दबाते हुए कहा

“गलत क्या है इसमें? दोनों में प्यार है आपस में, सिम्पल।”

शराफ़त ने समझाना चाहा तो वो सुलग के बोलीं

“ए तोबा अल्लाह ग़ारत करे इस प्यार व्यार को। सिवाय ज़हनी कमज़ोरी के और कुछ भी नहीं है। और तुम, अभी बीस के नहीं हुए हो, बोल तो ऐसे रहे हो जैसे सारी उम्र तजुर्बे में गुज़ारी हो।”

शराफ़त अली ने चुपचाप नज़रें घुमा लीं। “न जाने दादी को प्यार मुहब्बत के नाम से इतनी चिढ क्यूँ है?”

रफ़्तार में चल रही गाडी किसी स्टेशन पर आकर रुक गयी थी। सुरैया बेगम शराफ़त अली से पूछ बैठीं

“अरे ये ट्रेन क्यूँ रुकी है इत्ती देर से? क्या मामला हो गया?

शराफ़त अली उन्हें चाय थमाते हुए बोले ,”क्रॉसिंग है यहाँ, अब दूसरी ट्रेन आकर चली जाएगी तब ये चलेगी। तब तक आराम से चाय पीजिये।

“देखो क्या क्या ख्वारी लिखी है क़िस्मत में।” उन्होंने बेबसी से सोचा। कहीं इस लेटलतीफी में खाला का दम न निकल जाए? हाय खाला! पीठ टूटी जा रही है बैठे बैठे। ये उमर नहीं थी मेरी सफ़र करने की। सोचती हुईं वो फूंक मार कर चाय पीने लगीं।

दूसरी ट्रेन का इंतज़ार चुनावी वादों जैसा था। इंतज़ार इंतज़ार करते करते उनकी हिम्मत पस्त होने लगी थी कि तभी ट्रेन की सीटी बज उठी। शराफ़त अली लपक कर आये बोले, ”बस अब ट्रेन चलने वाली है, परेशान मत हों।”

वो अभी कुछ जवाब देतीं, कि एक लम्बे क़द के बुज़ुर्ग दाख़िल हुए। इकहरा बदन, सफ़ेद झक कुरता अलीगढ़ी पैजामा, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी और ग़ज़ब ये कि सर के बाल भी सफ़ेद। उनके साथ एक नाज़ुक सी लड़की थी। मुन्ना सा गोल चेहरा, कंधे तक कटे बाल और कानो में इयरफोन।

“हय तोबा! न जाने आँखों की रौशनी को क्या हो गया, सारे बुड्ढे जाने पहचाने से लगते हैं। ए लानत भेजो सुरैया, बुढ़ापा किसी अज़ाब से कम नहीं है।” वो धीमे से बुद्बुदायीं और शराफ़त को देखने लगीं, जिसकी नज़रें उस लड़की पे जम गयी थी।

शराफ़त अली आस पास से बेखबर लडकी के तफ्सीली जायजे में मशगूल थे। क्या ही अच्छा होता अगर सामने वाली सीट उस लड़की की होती। अभी वो उनींदी आँखों से ख़्वाब बुन रहे थे कि वो लडकी और बुज़ुर्ग सचमुच उनके साथ वाली सीट पे बैठने लगे। शराफ़त अली ख़ुशी से गुलाबी भी न होने पाए कि सुरैया बेगम की तेज़ आवाज़ उभरी, ”अरे अरे कहाँ घुसे जा रहे हैं? कोई मुसाफिरखाना नहीं खुला हुआ, ये रिजर्वेशन वाला डब्बा है, रिजर्वेशन वाला।”

उनकी तीख़ी आवाज़ के बदले में बड़ा ठहरा जवाब आया।

“अच्छा! फिर तो सही जगह पे आये हम, ग़लती से हमारा भी रिजर्वेशन है मोहतरमा।”

सफ़ेद कुरते वाले साहब ने सब्र से जवाब दिया तो शराफ़त अली होश में आये। जल्दी से उठकर उनके बैग वगैरा सेट करवाने लगे, बोले ,”प्लीज़ आप लोग आराम से बैठ जाएँ, दादी हैं मेरी, समझ नहीं पाई होंगी।

इस बात पर वो हल्का सा मुस्कुराये, बोले, ”मदद करने का शुक्रिया बरखुरदार, लोग मुझे खानसाब कहते हैं, तुम दादा भी कह सकते हो।” जोश से भरपूर आवाज़ में अपनापन था।

खानसाहब दोस्ताना मिजाज़ रखते थे, ट्रेन का बोझल माहौल उनकी बातों से खुशनुमा हो उठा। कुछ देर बाद खानसाहब ने झोले में से फ्लास्क निकाला और सबको चाय की दावत देने लगे। सुरैया बेगम शराफ़त के कान में फुसफुसायीं, ”सफ़र में अजनबियों के हाथ से कुछ न खइयो। वैसे भी ये बुड्ढा कुछ ज़्यादा नेक बन रहा है, ज़रा संभल के रहियो।”

शराफ़त ने तुरंत हां में सर हिला दिया, दादी आगे बोलीं।

“और सुन, ज़रा अपने नाम की शर्म रखना बेटा, मासूम चेहरे पे न जइयो भीतर से बड़ी खतरनाक होवे हैं।”

शराफ़त दांत किचकिचा कर रह गये। तभी मोबाईल पे अज़ान होने लगी। सुरैया बेगम ने हरा बटन दबाया और ज़ोर से बोलीं।

“अरे भाईजान अभी रस्ते में हूँ, ट्रेन से आ रही हूँ हवाई जहाज़ से नहीं। खाला को देखिये आप लोग।” हैं बताओ भला, अरे जिन्नात थोड़ी हूँ कि हाथ बढ़ाऊं और लखनऊ पहुँच जाऊं। वो कॉल काटते हुए बडबडायी।

“शराफ़त बेटे, कहाँ से आ रहे हैं आप लोग, किस जगह से ? ”खानसाब ने चाय का घूँट भरते हुए सवाल किया

“गोरखपुर से आ रहे हैं। वहीँ रहते हैं हम लोग।”

“गोरखपुर से! खानसाहब ने बुदबुदा कर कहा और चुप हो गये। शराफ़त अली ने उनकी ख़ामोशी महसूस कर ली, बोले

“गोरखपुर आना होता है आपका?

“नहीं बेटा, ज़माने से नहीं आया गोरखपुर। लेकिन हाँ, जवानी के दिनों की खूबसूरत यादें वहीँ से जुड़ी हैं।” बोलते हुए खानसाहब हल्का सा मुस्कुरा उठे। जिसे महसूस करके सुरैय्या बेगम का दिल जल कर ख़ाक हो उठा।

ए तौबा, जवान लड़के तो मुफ्त में बदनाम हैं। इस उमर में अल्ला अल्ला करने की बजाय, जवानी याद की जा रही है, हुंह।” वो मुंह ही मुंह में बुद्बुदायीं।

“दरअसल गोरखपुर में.. जो उर्दू बाज़ार है न, वहां हमारे वालिद के दोस्त रहा करते थे। उन्ही के यहाँ मैं अक्सर जाया करता था।” खानसाहब रवानी में बोले, इधर तस्बीह गिनती सुरैया बेगम की उँगलियाँ थम गयीं। धीमे से बोलीं

“आपका नाम क्या है? कुछ जाना पहचाना सा…

“मेरा नाम जमाल खान है| आप जानती हैं मुझे?

कहते हुए खानसाहब ने नज़रें घुमा कर उन्हें देखना चाहा, जिनका आधे से ज्यादा चेहरा बड़े से दुपट्टे के हाले में छुपा था। उम्र के इस पडाव पर किसी ऐसे शख्स का मिलना, जिसका मुद्दतों इंतज़ार किया हो… कैसा लगता है भला? वो सर झुकाए सोच रही थीं।

ट्रेन अपनी रफ़्तार से चल रही थी| नया शादीशुदा जोड़ा अपनी मंज़िल पे उतर गया था और हाँ जाते हुए लड़की ने सुरैय्या बेगम की तरफ़ हंस कर देखा जिस पर वो भी मुस्कुरा उठीं। शराफ़त अली ने महसूस किया दादी के चेहरे पे नरमी बिखरी हुई थी, वो तुर्शी वो नाराज़गी ग़ायब थी जिसे वो देखते आए थे।

“देखो ज़ीनत बेटा, मैं कहता हूँ न दुनिया बड़ी छोटी सी है, लोग घूम फिरकर वहीँ आ जाते हैं, मिल जाते हैं। यही हैं सुरैय्या, जिनके बारे में मैंने तुम्हे बताया था। क्या बेहतरीन वक़्त था वो, क्यूँ भई सुरैया, आप भी तो कुछ बोलिए।” खानसाहब मुस्कुराते लहजे में बोले।

सुरैया बेगम चादरनुमा दुपट्टे को माथे तक सरका लीं। क्या बोलतीं , ”कि हाँ जमाल खान तुम आते थे हमारे घर। तुम्हारी एक झलक के लिए मैं घंटो इंतज़ार करती थी। अब्बा से नज़रें बचा कर हम तुम कैसे मिला करते थे, सब याद है मुझे।”

सोचते हुए वो खिड़की के पार देखने लगीं। सुरमे भरी आँखों में झिझक जैसा कुछ महसूस हो रहा था।

इधर शराफ़त अली की नज़रें ज़ीनत पे अटक गयी थीं। जो शौक़ से खानसाहब के उर्दू बाज़ार वाले क़िस्से सुन रही थी। दादी के घराने की मेहमाननवाज़ी और तहज़ीब की दास्तान सुनने में शराफ़त अली को बिलकुल दिलचस्पी नहीं थी। उनका तो ताज़ा ताज़ा दिल ज़ीनत के रेशमी बालों में उलझ गया था। वो बार बार बहाने से कोई ऐसी बात बोलना चाहते कि उनका कोई बढ़िया इम्प्रेशन जम जाये। लेकिन हर दफ़ा दादी शराफ़त शराफ़त पुकार कर उन्हें शरीफ़ बने रहने पर मजबूर कर देतीं।

शीशे के बाहर मंज़र बदलते जा रहे थे, मंज़िल की तरफ़ आगे बढती ट्रेन पीछे कहाँ मुडती है? लेकिन भीतर बैठी सुरैया बेगम का ज़ेहन सालों पहले मायके की दहलीज पे टिक गया। जहाँ जमाल खान ने पहली दफ़ा उन्हें देखा था।

“आप वही हैं न जिनकी गाने की आवाज़ आती है दोपहर में? वो सुरीले गीत आप ही गाती हैं न?

वो कैसे सहम गयी थीं। मुस्कुराती निगाहों वाला लड़का सवाल पूछ रहा था। उन्होंने सर से ढलक आये दुपट्टे को दुरुस्त किया और सरपट दौड़ लगा दी।

“अरे सुनिए, अपना नाम बताती जाइए।” जमाल ने हंसते हुए कहा था।

“सुरैय्या, सुरैया नाम है हमारा।”

इस मुख्तसर सी मुलाक़ात के बाद जैसे रस्ते खुल गये थे। 2-3 दफ़ा मिलने के बाद जमाल ने उनसे कहा था।

“अब्बा से हमारे रिश्ते की बात करनी है। इस तरह चोरी छुपे मिलना दुरुस्त नहीं, अब तभी आऊंगा जब सारी बात पक्की हो जाएगी। मेरी बारात का इंतज़ार करना।”

मगर वो कहाँ आये थे, वो तो दुबारा आये ही नहीं। वो कह कर न आना, सरासर धोखेबाज़ी तो थी। सोचते हुए सुरैया बेगम के दिल में कडवाहट सी भर गयी।

ट्रेन किसी स्टेशन पर रुक गयी थी। यादों का सिलसिला भी वहीँ ठहर गया था। चाय समोसे वालों की बोलियाँ खिड़की से भीतर आ रही थीं।

“ए मोम्फ्ली ले लो मोम्फ्ली, 10 वाला 5 वाला।” मूंगफली वाले की आवाज़ आई तो खानसाब ने एक पैकेट ख़रीद लिया। फिर उसमे से मुठ्ठी भर मूंगफलियाँ उनकी तरफ़ बढ़ाते हुए बोले।

“सुरैया ये मूंगफलिया मुझ पे उधार थीं, याद है न? लो खाओ भई, और उस कर्ज़ से मुझे आज़ाद करो।”

उन्होंने चेहरा फेर लिया, धीरे से बोलीं, ”कुछ उधार ऐसे होते हैं जमाल, जो वक़्त गुज़र जाने के बाद चुकाया जाना बेसूद होता है। मैं अब मूंगफलियाँ नहीं खाती, शुक्रिया।”

खानसाब ने चुपचाप मूंगफली वापस पैकेट में डाल दिया। एकदम से माहौल बोझल हो उठा।

उधर दूसरी तरफ़ शराफ़त अली को ज़ीनत से बात करने के बहाने मिल गये थे। नई उम्र का नौसिखिया आशिक़ जज़्बात छुपाने में नाकाम हो रहा था।

मोबाईल में फिर से बेवक्त की अज़ान होने लगी थी। उन्होंने झुंझलाते हुए मोबाईल उठाया और छूटते ही बोलीं

“ए भाईजान एक तो वैसे जान सत्तर अज़ाब में घिरी है। उपर से आप बार बार पूछते हैं कहाँ पहुंची, कहाँ पहुंची।”

“अरे सुरैय्या, अम्मा की जान अटकी है, पुतलियाँ बस सफ़ेदी की राह पर हैं, बस अब तब लगा हुआ है, मुझे नहीं लगता उन्हें देख पाओगी।”

“ए तो क्या करें भाईजान? बीच रस्ते से वापस लौट जाएँ?”

सुरैय्या बेगम ने कुढ़ते हुए कहा और फ़ोन रख दिया| उन्हें इल्म नहीं था कि एक जोड़ी ऑंखें झुर्रियों में उलझी उन्हें शौक़ से देख रही हैं। अजीब बात थी इस अचानक मुलाकात से जहाँ खानसाब खिल उठे थे, वहीँ उनके चेहरे पर मलाल ठहर गया था। होता भी क्यूँ नहीं, सरासर बेवफ़ाई और झूठे वादों में फंसाया जाना कौन भूलता है भला? “हुंह, बरात लेकर आने वाले थे, आज ख़ुद अपनी पोती लिए घूम रहे हैं। खैर! मुहब्बत सरासर बेवकूफी के अलावा और कुछ नहीं, ये बात मुझे तभी समझ आ गयी थी।”

वो ख्यालों में डूबी ख़ामोश बैठी थीं कि शराफ़त अली ने उनका ध्यान नाश्तेदान की तरफ़ दिलाया। उन्होंने बड़ी बेज़ारी से इनकार कर दिया।

“आप की तबियत तो ठीक है न दादी? अरे नाश्तेदान के हलवे पुकार रहे हैं आपको।”

“चल हट! मसखरी सूझ रही तुझे, उधर खाला का दम अटका हुआ है।”

वो उदास लहजे में बोलीं।

ट्रेन किसी बड़े स्टेशन पर रुक गयी थी। खूब चहल पहल , शोर शराबा। ज़ीनत को कुछ लेना था वो प्लेटफ़ॉर्म पे उतरने लगी तो शराफ़त ने उसका साथ देना अपना फ़र्ज़ समझा।

सीट पर खानसाहब और सुरैया बेगम रह गये।

कुछ पल ख़ामोशी छाई रही फिर वो बोले

“सुरैय्या, इंतज़ार क्यूँ नहीं किया था मेरा? उम्र बीत गयी लेकिन उस तकलीफ़ से कभी निकल नहीं पाया।”

उनकी बात सुनकर वो बोलीं

“दूसरों को दुःख देने वाले चैन कहाँ पाते हैं जमाल खान?

“मैंने किसको दुःख दिया? उल्टा आपने जल्दबाज़ी की। मेरे आने का इंतज़ार नहीं किया और किसी दूसरे के साथ…”

खानसाहब ने बात अधूरी छोड़ दी फिर आगे बोले

“मैं वहां से लौटते ही बीमार हो गया था, 2 महीने बिस्तर से लगा रहा। हालत संभली तो अब्बा से आपके बारे में बात की, मालूम हुआ आपकी शादी तय हो चुकी थी।”

सारी उम्र बीत गयी यही सोचते हुए कि मुहब्बत एक ऐसा गुनाह है जिसमे लड़की का छलना लिखा है। कितनी चिढ हो गयी थी मुहब्बत के नाम से, इस लफ्ज़ से। मगर आज एहसास हुआ कि वक़्त सबसे बड़ा दुश्मन है असल मायने में वही बेवफ़ा है।

सुरैया बेगम के दिल से वो फांस निकल गयी थी जिसकी चुभन बड़े ज़माने तक महसूस होती रही। तबीयत हल्की लग रही थी, सफ़र पूरा हो चुका था। खानसाहब ज़ीनत कीं किसी बात पे उसका सर थपथपा रहे थे, और वो मुस्कुराती नज़रों से उन्हें देख रही थी।

“चलें फ़िर, चारबाग़ स्टेशन आ गया।” शराफ़त अली ने बैग उठाते हुए खानसाहब से कहा।

“हाँ बिलकुल, बड़ा अच्छा वक़्त गुज़रा। चलो भई सुरैया दुआओं में याद रखना, और हाँ मूंगफली खाया करो, सेहत के लिए अच्छा होता है।”

खानसाहब बोले तो सुरैया बेगम ने ज़ीनत को कंधे से लगाया और बिना किसी ओर देखे गेट से नीचे उतर गयीं।

स्टेशन के बाहर ऑटो में बैठते ही शराफ़त अली बोले

“अरे, खानसाहब से नम्बर नहीं लिया मैंने। एकदम से दिमाग से उतर गया।’

“अब क्या होगा बेटा? अब तू ज़ीनत से बात कैसे करेगा?”

“दादी मैंने खानसाहब के नम्बर की बात की है।”

ये दादी भी न, इनकी निगाहों में सीसीटीवी कैमरा लगा है, कुछ छुपा नहीं है इनसे।” शराफ़त अली झेंपते हुए बुदबुदाए।

खाला का घर आ चुका था। नाते रिश्तेदारों से घर भरा हुआ था। आख़िरी वक़्त में बेटे बेटियां सब मिलने आ गये थे। भाईजान ने सुरैया बेगम का हाथ थामा और खाला से बोले

“अम्मा देखो कौन आया है, सुरैया आयी हैं।”

खाला ने ज़रा सी आँख खोली और कांपते हाथ से उनका चेहरा छूने लगीं।

सुरैया बेगम ने उनका माथा चूम लिया। खाला लडखडाती आवाज़ में पुकारीं

“सुरैया…

खाला के मुंह से अपना नाम सुनते ही आंसू छलक उठे, वो उनकी हथेली थामे बैठी रहीं उनकी उँगलियाँ सहलाती रहीं, कि बाहर मेहमानखाने से जानी पहचानी सी आवाज़ उभरी।

“अरे.. ये तो..

वो हैरान होकर बाहरी कमरे तक गयीं, वहां खानसाहब और ज़ीनत बैठे थे|

वो कुछ बोलतीं उससे पहले भाईजान बोले

“अरे सुरैया, देखो भई, राफ़िया फूफ़ी के ससुराल से आये हैं, जमाल भाई! इनका ही ज़िक्र कर रहा था। शराफ़त बता रहे थे कि आप सब साथ ही आये हैं। ये तो ग़ज़ब इत्तेफ़ाक हो गया।”

“जी साथ आये हैं।” कहती हुई वो वापस मुड़ने लगीं तो भाईजान फिर बोले

“और इनसे तो वाकिफ़ हो, ज़ीनत बेटी हैं, जमाल भाई के भतीजे की बेटी। भाई जमाल आपने अच्छा किया, शादी नहीं की सारे जंजाल से बच गये। वाह भाई!”

भाईजान हंस रहे थे और परदे का कोना थामे वो वहीँ खड़ी रहीं। उम्र भर की शिकायत दिल पे फिर से बोझ बन कर गिर गयी, वो बुदबुदा उठीं, “जमाल.. तुमने शादी क्यूँ नहीं की…”

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