शोर तुम्हारे भीतर है


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– ओह, कैसा अजीब शहर है न यह! अलसुबह ही शोर होने लगता है। देर रात तक भी गाड़ियों के आने – जाने की आवाजें आती रहीं। मैं तो सो ही नहीं सकी, मृदुल।

– मैं भी कहां सो पाया।

– झूठ न कहो, खर्राटे भर रहे थे तुम पूरी रात। कुछ तो गाड़ियों के शोर और कुछ तुम्हारे खर्राटों की आवाज ने बिल्कुल आंख नहीं लगने दी।

– मैं कहाँ खर्राटे लेता हूँ, संध्या।

– तुम्हे क्या होश? तुम तो घोड़े बेचकर सो रहे होते हो। मैं कह रही हूँ न, तुम्हारे खर्राटे तो इतने भयानक होते हैं कि मुर्दे को खड़ा कर दें।

– जब मुझसे इतनी ही परेशानी हो रही थी, तो दूसरे कमरे में सो जाती।

– वहां भी जाकर लेटी थी। वहां तो गाड़ियों की आवाजें और भी तेज आ रही थी। उस पर, गली के सारे कुत्तों को ना मालूम, रात को क्या हो जाता है? उतना भौंकते हैं कि पूछो मत…और ये घड़ी की टिक – टिक भी क्या कम सताती है। पंखा भी कितनी आवाज कर रहा है, कुछ दिनों से। किसी इलेक्ट्रिशियन को क्यों नहीं बुलाते?

– तुम जरा लंबी सांस भर कर सोने की कोशिश किया करो, संध्या। ये आवाजें मेरी नींद में खलल नहीं डालती। तुम इतना सोचती हो इन सब के बारे में… इसीलिए ये उलझाव तुम्हे सोने नहीं देते।

– अरे, तुम भी कैसी बात करते हो? सोने की कोशिश तो करती ही हूं न। लेकिन नींद पास ही नहीं फटकती, तो जबरन कैसे सोऊं?

– इस तरह सो नहीं सकोगी, तो बीमार पड़ जाओगी।

– लेकिन करूं क्या। कोई मेरी बेचैनी समझता ही नहीं। तुम भी नहीं।

– ऐसा मत कहो, संध्या। मैं समझता हूं, लेकिन इससे बाहर तो तुम्हे खुद ही निकलना होगा। मैं, बस तुम्हारी मदद कर सकता हूं।

– मृदुल, मेरी एक बात मानोगे?

– कहो तो

– देखो…क्या हम कुछ महीने कहीं दूर जा कर नहीं रह सकते?

– दूर कहां?

– कहीं भी। किसी पहाड़ के पास। आस – पास के किसी छोटे – मोटे स्कूल में पढ़ा लूंगी मैं। तुम भी कुछ काम ढूंढ लेना वहीं। यूं भी, वहां खर्च बहुत कम ही होगा। हम आसानी से अपना गुजारा तो कर ही लेंगे।

– ठीक है, पर क्या होगा वहां जाकर?

– मैं सो पाउंगी, शायद। वहां, ये गाड़ियों की आवाजें कानों में नहीं पड़ेंगी। ये कुत्ते नहीं भौकेंगे। सब शांत होगा चारों ओर। कितना सुकूं मिलेगा। चैन की नींद सो सकूंगी।

– और करेंगे क्या सारा दिन वहां?

– सबसे पहले एक झोपड़ी बनाएंगे। उसमें पानी का एक घड़ा होगा। कुछ बर्तन। एक बिस्तर। बिस्तर पर हरे रंग की चादर बिछाउंगी। फूलों वाली। हम उसी पर सोया करेंगे। फिर सुबह उठ कर मैं चाय बनाउंगी। तुम्हारे पास आउंगी। तुम्हारे माथे को चूम कर तुम्हे उठाउंगी। फिर तुम मेरी अंगुलियों पर अपना हाथ घुमाओगे। हम दोनों साथ चाय पिएंगे। हालांकि, तब तक चाय ठण्डी हो चुकी होगी।

– ऐसा कुछ नहीं होगा। ये सब तुम्हारे खयाल हैं। वहां भी तुम्हे चैन नहीं मिले, शायद।

– ऐसा कैसे कह सकते हो तुम?

– क्यूंकि तुम अपनी आभासी दुनिया से बाहर नहीं आ रही।

– मतलब?

– मतलब, हम पिछले छह महीनों से एक पहाड़ के पास बनी झोपड़ी में ही रह रहे हैं। पिछले साल, दिसंबर में तुमने ठीक यही कहा था, जो अब कह रही हो। तुम्हारे एक बार कहने पर मैं, सब कुछ छोड़ कर तुम्हे लेकर यहां आ गया था। लेकिन कुछ नहीं बदला, बल्कि और बिगड़ गया है। तुम खो गई हो, खुद के बनाए एक संसार में। तुम्हारा बना संसार एक भ्रम से अधिक कुछ नहीं है। देखो, यहां एक – आधी गाड़ी दिखती है किसी दिन। और तुम्हे हमेशा शिकायत रहती है कि गाड़ियों के हॉर्न की आवाजें बहुत तेज हैं। यहां एक भी कुत्ता नहीं है पास, लेकिन तुम्हे उनके भौकने की आवाजें परेशान करती हैं। घड़ी नहीं टंगी है, किसी भी दीवार पर। लेकिन तुम, उसकी टिक – टिक सुनती हो। पंखा नहीं है यहां। लेकिन तुम उसकी आवाज ठीक करवाने के लिए इलेक्ट्रिशियन को बुलवाना चाहती हो।

– ये सब क्या कह रहे हो, मृदुल? ऐसा कैसे मुमकिन है, भला?

– यही सच है।

– नहीं..फिर, तो इसके मायने यह है कि मैं पागल हो चुकी हूं। मुझे कुछ याद ही नहीं।

– नहीं। पागल नहीं हुई हो तुम। बस, परेशान हो। एक अरसे से सो नहीं सकी हो। कुछ बेचैन हो। जाने क्या मचलता रहता है तुम्हारे भीतर। तुम ने अपनी एक दुनिया रच ली है और उसी को सच मानती हो। शहर की मसरूफियत और आपाधापी की वह दुनिया तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ती। उससे दूर होने को हम यहां आए, लेकिन तुम उस दुनिया को यहां भी अपने साथ ही ले आई।

– अब क्या करूं मैं? (घबराते हुए)

– तुम्हे निकलना होगा, इससे बाहर।

– कैसे? तुम ही निकाल सकते हो, मुझे। (लगभग रोते हुए)

– नहीं, तुम्हे खुद ही निकलना होगा।

– क्यूं? क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करते अब? परेशान हो गए हो मुझसे और मेरी बीमारी से?

– नहीं…क्यूंकि मैं हूँ ही नहीं।

– मतलब?

– मतलब, मैं जिंदा नहीं हूँ। इस दुनिया को अलविदा कहे मुझे एक महीना बीत चुका है। और इस वक्त तुम काली मिट्टी से बनाए चौकोर फ्रेम में सजी मेरी तस्वीर से बात कर रही हो।

– नहीं, पागल मत करो मुझे।

– यही हुआ है।

– तो, तुम मुझ से बात कैसे कर रहे हो फिर?

– मैं बात नहीं कर रहा। मैं कुछ नही कह रहा। तुम सुन रही हो, जैसे दूसरी आवाजें सुनती हो।

– मैं तुम्हारा मरना कैसे भूल सकती हूं? तो, मैं यहां बिल्कुल अकेली हूं?

– नहीं, मैं तुम्हे कभी अकेला नही रहने दूंगा। मैं, तुम में धड़कता हूं हर वक्त। धड़कता रहूंगा। तुम, मुझे हमेशा सुन पाओगी। लेकिन, इस शोरगुल को सुनना बंद करना होगा तुम्हे। शोर तुम्हारे बाहर नही, भीतर है। उस शोर को चुप करना होगा। इन गाड़ियों की आवाजों को चुप करना होगा। इन कुत्तों के भौकने को रोकना होगा। सब कुछ खामोश कर दोगी, तो खुद को खोज पाओगी। खुद में लौट पाओगी। जी पाओगी। तुम्हे इससे बाहर आना होगा और ऐसा सिर्फ तुम ही कर सकोगी। सिर्फ तुम। अकेले।

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