मा थे पर पल्ला डाले
क़रीने से कसी हुई धोती पहने
एक स्त्री अपने बग़ल एक टोकरी दबाए
खेत की मेढ़ से आती दिखती है
आते से खेत में काम करते
अपने आदमी को टेरती है जीमने के लिए
और बिछा कर पैरे पर कोई गमछा
सजा देती है रोटी, प्याज़, मिर्च और भाजी
और मुँह धोने को पानी देते हुए
अपने आदमी के पसीने से गीले कपड़ों को
एक गर्व और प्यार भरी चिंता से देखती है
खाते वक़्त झलती है पंखा
और रोटी ले लो कहते हुए
खेत की झोपड़ी के सार में बंधी गइया को
डालती है सानी
और पास पड़े गोबर को टोकनी में भरती है
कल सुबह आँगन लीपूँगी सोचकर
और स्त्री की आँखों में सजता है आँगन
गहाई फ़सल का एक ढेर उसे आमंत्रण देता है
सो वह सूपा उठा कर उसे फटकती है
और बग़ल में बैठी खेतिहर मज़दूर की औरत से
पूछती है उसके लल्ले का हाल
बच्चे ऐसे कम स्त्री की आँखों में ज़्यादा पलते हैं
साँझ ढलने से पहले
रात की चिंताओं में पहुँचती है घर
और थोड़ी देर में छानी से उठता है धुआँ
बड़े चाव से बनता है दरभजिया और चावल
खाना आग से कम स्त्री की आँखों से ज़्यादा पकता है
अपने आदमी के आने के पहले
सलेट पर अ अनार का लिखती
अपनी बच्ची को उठा कर
टठिया में परोसती है
और ख़ुद छोटे छोटे कौर बना कर उसे देती है
आदमी महुए की शराब के नशे में
लगभग झूमता सा घर आता है
बच्ची करवट ले बिस्तर के एक कोने में घुरकती है
और स्त्री सजाए बैठी है खाना
चूल्हे के पास
सपनों की तरह
जैसे उसका आदमी खाना खाकर
करता है उसके दिन के अंतिम सपने को सच
आदमी की असल भूख स्त्री की आँखों में मिटती है
चूल्हा पोत कर
बिस्तर में बची खुची जगह में
जैसे तैसे लेटती है
बग़ल में सोते अपने आदमी को
एक हल्की और सपनीली मुस्कुराहट लिए निहारती है
एक आदमी बिस्तर पर कम
अपनी स्त्री की आँखों में ज़्यादा सोता है
स्त्री सोती है कि
दूसरे दिन के सपनों को कर सके सच
कि जैसे सोते सोते करती है
मज़े मज़े में चिंता
अपनी थकान उतारने को
और दुनिया की सारी फ़सलें
पकती हों रात में
स्त्री की चिंता से।
– अनुराग तिवारी