हिन्दगी

प्रेम

प्रेम युद्ध नहीं मानता प्रेम दुःख भी नहीं जानता प्रेम को भाषा कहने वाले लोग अभी सम्पूर्ण रूप से सचेत है प्रेम आधिकारिक रूप से हमारी आत्मा की संतुष्टि है

मेरा गांव

चलते चलते थक जाता है पाँव चलते चलते खत्म हो जाती है राह चलते चलते आसान हो जाता है गाँव चलते चलते उड़ने लगते हैं पखेरू अचानक से फुर्रर्र फुर्र

एकांत कितना दूर है

क्या समुद्र के उस छोर पर जहां उत्पन्न नहीं होता कोई ज्वार या दोनों ध्रुवों के बीचों बीच जहां समाहित होती है समूची क्रियाएं। नहीं, शायद उस बूढ़े पीपल के

एक ना-मुक़म्मल बयान

तारीख़ें.. कुछ तारीख़ें चीख होती हैं वक़्त के जिस्म से उठती हुई… कि मुझे सुनो, मैंने क्या खोया है तुम्हारे इस बे-मा’नी औ’ बेरुख़ी से भरे सफ़र में। कुछ तारीख़ें

मेरी स्मृति से तुम्हारा निर्गमन

पिछले कुछ वक़्त से मैं भूलने लगी हूँ, छोटी-छोटी चीज़ें, छोटी-छोटी बातें, नाम, तारीख़ें। मुझे कभी फ़र्क़ नहीं पड़ा इन बातों से, पर अब भूलने लगी हूँ वे बातें जो

खगोलीय घटना

तुम मेरे साथ क्षण भर को आये कितने कम क्षणों तक साथ चले हम इस खगोलीय जीवन में हम दो समानांतर रेखाओं सदृश खड़े रहे एक स्थान पर अंतिम विदा

दुनिया

हाथों में एक आकाश सिमट जाता है किसी का हाथ थाम लेने भर से एक दुनिया हस्तांतरित हो जाती है किसी की बनायी दुनिया में केवल हाथ थामने तक ही

बत्तीसवें बरस की लड़की

ज्ञात हो तो बताइएगा लड़की देखने जाने वालों के नेत्र में कौन सा दर्पण होता है? शिक्षा और गुण-अवगुण से पहले रूप का सुडौलापन और रंग क्या सुनिश्चित करता है?

जिज्ञासु

मैं अघोषित जिज्ञासु हूँ प्रिय तुम्हारी पूर्व प्रेमिकाओं के नैन-नक्श, रूप के प्रति कि उनके सौन्दर्य ने तुम्हे कितने अंतराल तक बाँधे रखा और क्या उनकी देह देहरी पर तुमने

समानांतर दुःख

हमारे दुःख ट्रेन की पटरी की तरह बिछे रहे साथ-साथ लेकिन कभी एक न हो सके हम बुन रहे थे जो ख़्वाहिशों के नर्म स्वेटर उनके फंदे बीच-बीच में उतरते

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