देह के कर्ज
पूस, अगहन, माघ का फर्क नही जानती काल और समय से परे यंत्रचलित मशीन सी काम करती हुई वो देह लगता है सिर्फ कर्ज चुका रही है एक बरस में
पूस, अगहन, माघ का फर्क नही जानती काल और समय से परे यंत्रचलित मशीन सी काम करती हुई वो देह लगता है सिर्फ कर्ज चुका रही है एक बरस में
दूरियां विभाजन का प्रतीक नहीं होती हम भी अलग नहीं है बस हमारे मध्य केवल दूरियां आ गयी है हमारे हाथ की रेखाएँ बस पथ की बाधाएं मात्र है दो
जो तुम्हारा नहीं तुम्हें मिल गया भी तो क्या ढोते हुए कहाँ से कहाँ जाओगे चिड़िया चली जाती है पेड़ पंख नहीं उगाता जड़त्व बाँधकर वहीं खड़ा रहता है फ़सलें
कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं जैसे धकेल दिया गया हो किसी ऊँची पहाड़ी से या कर दिया गया हो उसे छिन्न भिन्न आनन फानन में सारे सबूत मिटा दिए
प्रतीत होता है मैंने निगल ली है एक समूची पृथ्वी जिसके झरनें बह रहे हैं मेरी रक्तकणिकाओं में जिसके पेड़ उग रहे हैं असंख्य भाव रूपी, जिसके पुष्प खिल रहे
जब प्रेम का इज़हार करेंगे हम हमारी कोई भी महान उपलब्धि काम नहीं आएगी काम आएगा सिर्फ़ स्त्री के क़दमों में बैठ काँपते हाथों से फूल देना उसकी उत्सुकता
सन्तनगर के राजा का खजाना भरा हुआ था। जैसे कि परम्परा है, राजा बड़ा सुखी था। विशाल महल, सोने का सिंहासन, रत्नजड़ित मुकुट, सुन्दर रानियाँ, इनमें से पैदा हुये वंश
पूरी रात के लिए मचलता है आधा समुद्र आधे चाँद को मिलती है पूरी रात आधी पृथ्वी की पूरी रात आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है पूरा सूर्य आधे
अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ एक वृक्ष जाएगा अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर साथ जाएगा एक वृक्ष अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझसे पहले ‘कितनी लकड़ी लगेगी’ शमशान
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