प्रतीक्षा

दूरियां विभाजन का प्रतीक
नहीं होती
हम भी अलग नहीं है
बस हमारे मध्य केवल दूरियां आ गयी है
हमारे हाथ की रेखाएँ बस पथ की बाधाएं मात्र है
दो देशों की सीमाएँ नहीं

हम विभाजित नहीं है
मुझे आज भी प्रतीक्षा है
तुम्हारे लौटने की

जैसे किसी ठूँढ को होती किसी कौंपल के फूटने की
रेगिस्तान के टीलों को मीठे पानी की
पसीने से लथपथ किसान को खिलती गेंहू की बालियों की

माँ बताती है चाँद में कोई दाग नहीं है
वहाँ सदियों से एक बूढ़ी औरत रहती है
किसी की प्रतीक्षा में शून्य भाव लिए
वो सारी रात चरखा चलाती है
और तारे बुनती (कातती) है
कि जब वो लौटे तो अँधेरे में कहीं राह ना भटक जाये

तुम्हारे बिना मेरे भीतर उतनी ही शून्यता है जितनी कविता
लिखने के पश्चात किसी कवि के हृदय में शेष रहती है

नये विचारों की तलाश में उसी की तरह भटकता हूँ
मैं स्मृतियों की यात्राएं करता हूँ और कविताएँ चुगता हूँ
इसी प्रतीक्षा में कि जब तुम मिलोगी तो
मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ तो होगा

तुम जानती हो मैं अंधविश्वास नहीं मानता
लेकिन अब मुँडेर पर किसी कौए को बोलता देखकर मैं उसी तरह राह देखता हूँ जैसे
हर शाम प्रतीक्षारत चिड़िया के छोटे बच्चे किसी भी छोटी सी आवाज पर घौंसलों से बाहर गर्दन निकलते हैं
मैं इतना समझ गया हूँ प्रेम में पड़ा मनुष्य मान्यताओं पर अधिक विश्वास करने लगता है

प्रतीक्षा
कितना सुंदर शब्द है
घनघोर अन्धकार में तैरता हुआ एक जुगनू
सबसे आखिर में बची हुई एक उम्मीद

कि एक दिन कोई लौटेगा
तुम्हारे आँसू पौंछगा और खींच लेगा तुम्हे इस अँधेरे से बाहर
और अगर नहीं पौंछेगा तो कम से कम तुम्हे रोने के लिए कन्धा तो देगा ही देगा

तुम सोचो जरा

कितना सुखद क्षण होगा
कि एक दिन तुम लौट आओगी
और मैं तुम्हें तुम्हारी प्रतीक्षा करता हुआ मिलूँगा

ऋषि कौशिक की अन्य रचनाएँ।

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