देह के कर्ज


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पूस, अगहन, माघ का फर्क नही जानती
काल और समय से परे
यंत्रचलित मशीन सी
काम करती हुई वो देह
लगता है सिर्फ कर्ज चुका रही है

एक बरस में पूरे नौ दिन भी शहर से आकर
पत्नी के साथ नही रहता
और वो पूरे नौ माह तक ढोती है उसे

बिस्तर पर निश्चेष्ट पड़े रहना है
उसकी अपनी देह की कोई चाह नहीं है
अगर हुई तो जिन्हें वो नही जानती उनके नाम से भी कुलटा, बेशर्म के सारे तमगे
नीले रंग में मिलेंगे…. उसकी देह को
कौन कहता है आसमान नीला होता है

कभी कभी सोचती हूँ,
स्त्री सिर्फ देह का कर्ज चुकाने को ही
जन्मती है क्या?

कुछ प्रश्न अनुत्तरित ही रहेंगे शायद
स्त्री के मन का कोई कोना कभी प्रेम से सिक्त होगा भी या वो रहेगी पीड़ा से तर देह मात्र।

Deh Ke Karz‘ A Hindi Poem by Kajal Mehtani

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