पृथ्वी की उथल पुथल

प्रतीत होता है
मैंने निगल ली है
एक समूची पृथ्वी

जिसके झरनें
बह रहे हैं मेरी रक्तकणिकाओं में
जिसके पेड़ उग रहे हैं
असंख्य भाव रूपी,
जिसके पुष्प
खिल रहे हैं
मुझमें प्रेम बन
और जिसकी चट्टानें
बना रही हैं
मेरे हृदय को कठोर,
मेरे भीतर बदलते हैं मौसम
जिन्हें तुम संज्ञा देते हो
मेरे बदलते मिज़ाज का।

किसी वैधानिक चेतावनी के बिना
मैं भटकती हूँ
असहमत शब्दों की आकाशगंगा में
जहाँ मुँह सूख चुका हैं
उल्का पिण्डों का,
टूट कर फाँसी पर लटकती
उनकी बग़ावतें
दर्ज़ कर लेती हूँ
अपने भीतर के ज्वार-भाटों में

मैं आराम से
सितारें गिनती हूँ
सुनती हूँ संगीत
निहारिकाओं के,
साथ ही साथ
समंदर पिघला देता है
मेरे भीतर का पहाड़

चहुँ दिशाओं का शोर सुनने
के लिए दो कान ही काफ़ी हैं
शोर जो कह रहा है,
सभ्यताओं के विश्व युद्ध
फ़तह किये जा सकते हैं
और भीतर की
उथल पुथल पिघलना
बाहरी सूरज का
कार्य नहीं।।

नन्दिता सरकार की अन्य रचनाएँ। 

Related

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: