kavitakosh

कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं

कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं जैसे धकेल दिया गया हो किसी ऊँची पहाड़ी से या कर दिया गया हो उसे छिन्न भिन्न आनन फानन में सारे सबूत मिटा दिए

पृथ्वी की उथल पुथल

प्रतीत होता है मैंने निगल ली है एक समूची पृथ्वी जिसके झरनें बह रहे हैं मेरी रक्तकणिकाओं में जिसके पेड़ उग रहे हैं असंख्य भाव रूपी, जिसके पुष्प खिल रहे

जब प्रेम का इज़हार करेंगे

जब प्रेम का इज़हार करेंगे हम हमारी कोई भी महान उपलब्धि काम नहीं आएगी काम आएगा सिर्फ़ स्त्री के क़दमों में बैठ काँपते हाथों से फूल देना   उसकी उत्सुकता

आधा चाँद माँगता है पूरी रात

पूरी रात के लिए मचलता है आधा समुद्र आधे चाँद को मिलती है पूरी रात आधी पृथ्वी की पूरी रात आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है पूरा सूर्य आधे

एक वृक्ष भी बचा रहे

अंतिम समय जब कोई नहीं जाएगा साथ एक वृक्ष जाएगा अपनी गौरैयों-गिलहरियों से बिछुड़कर साथ जाएगा एक वृक्ष अग्नि में प्रवेश करेगा वही मुझसे पहले   ‘कितनी लकड़ी लगेगी’ शमशान

मत भूलना

मत भूलना कि हर झूठ एक सच के सम्मुख निर्लज्ज प्रहसन है हर सच एक झूठ का न्यायिक तुष्टीकरण तुम प्रकाश की अनुपस्थिति का एक टुकड़ा अंधकार अपनी आँखों पर

मकड़ी

अक्सर सुलगने लगती हैं मेरी उंगलियाँ सिगरेट की तरह कुछ स्पर्श धुआं बनकर मेरी आंखों के नीचे बैठ जाते हैं फिर इस काई पर रातें फिसलती रहती हैं फिसलती रहती

अनुवाद

ज़िद करने के बाद माँ से मिली दो अठन्नियों में से एक मैं अक्सर खो देता था घर से दुकान के रास्ते में हाँ! मैं आसमान देखकर चलता था, हूँ

गिरती हुई चीजों के विरुद्ध

शाम होते ही लौटना था पर रात गिर आई रात कुछ उस तरह गिरी मेरे सामने जैसे सड़क पर गिर पड़ा हो पेड़ रात को कभी मैंने इस तरह गिरते

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