कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं

कविताएँ जब अचानक मर जाती हैं
जैसे धकेल दिया गया हो
किसी ऊँची पहाड़ी से
या कर दिया गया हो उसे
छिन्न भिन्न
आनन फानन में सारे सबूत मिटा दिए जाते हैं

चौखट करती है इंतज़ार
क़िताबों के मृत पन्नों का
नृशंसता छीन लेती है
ज़मीन कविताओं की

एक कविता जो अभी अभी कूदी
अपने घर की छत से
व्यवस्थाओं ने
फेंक दिया उसे देश के बाहर
उस पर इल्ज़ाम था
उसके निम्न दर्जे का

कवि ने लिखी दिन भर
क्रांति की कविता
रात के अँधेरे में
पूरी किताब जला दी गयी
ज़िल्द के परतों की राख़
जब हवा में उड़ती है
वो लाती है अपने साथ आक्रोश
आक्रोश जिसमें चीख़ है
अवैध प्रावधानों की
आक्रोश उस कविता का
जिसका सिर दबा दिया गया
सूखी लकड़ियों के बीच

दुनिया के सभी नृशंसता का चेहरा
एक ही है
उनके कृत्य अलगाव में भी
समान दर्जे के हैं
यह कितना समान है कि
एक सभ्य राष्ट्र के नागरिक
अपनी समानता की लाश
ढोते ढोते गर्त में धंस रहे हैं
बावजूद इसके एक समूह
काट रहा है
एक कि ज़बान
तोड़ रहा है रीढ़
और मना रहा है जश्न
अपने कृत्यों का

एक ऐसी मानसिकता
जिसका परचम चीख़ता है कि
सबूत बनते हैं मिटाने के लिए

कविताएँ अंततः जला दी जाती हैं
रात के अंधेरे में
गुपचुप में बचती है सिर्फ़ किताबों की राख़
राख़ जिसका आक्रोश सीमित है
वो नहीं गिराता है बम
खोखली मानसिकता के कीचड़ में
वो करता है शोर परन्तु सीमित है
जो कि एक समान है चुप्पी के
या सभी ख़ामोश हैं
सभी चुप हैं।

नन्दिता सरकार की अन्य रचनाएँ।

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