तू….

फलक दूर था पर सितारे दस्तरस थे,
एक दौर था जब तू और मैं हम थे।
मुझे अच्छे से याद है
साख पर सोयी थी ,
मेरे हाथो में तेरा हाथ था।
तुम गुनगुना रहे थे
मैं मुस्कुरा रही थी।
लड़ कर जब हार गए थे दोनों,
तो बस ऐसे ही एक दूजे को
मना रहे थे दोनों।
वो बारिश का दिन था
कुछ बुँदे ,
तेरे हाथो पर टपक पड़ी थी
खिड़की के कोने से सरक कर,
आदतन उंगलिया फेर दी थी तुमने
मेरे हाथो पर अपना नाम लिख कर।
और हर बार की तरह
चाशनी में डुबोये
लफ़्ज़ गूंज रहे थे तुम्हारे,
मैं तो बस हाँ हाँ बोले जा रही थी
किस्से खत्म ही नहीं हो रहे थे तुम्हारे।
और हाँ वो तुम्हारे बेसुरे गीत
जिन्हें तुम बड़ी शिद्दत से गाते थे,
उफ़ कहीं भी सच्ची कहीं भी न
बस हाथो से ताली पीटी और शुरू हो जाते थे।
तुम्हे पता तुम्हारी आँखे
झील सी लगती थी मुझे,
बातें तो तुम्हारी सारी हवाई ही होती थी
बस एक आँखे ही सच्ची लगती थी मुझे।
उस दिन जैसे जैसे शाम होती गयी,
तेरी आँखे और भी सुर्ख होती गयी।
अब तो तेरी बाते भी ख़त्म होने लगी थी,
मैं तेरे बालो पर हाथ फेर रही थी ,
और तेरी आँखे अब बंद होने लगी थी।
शरारतें तेरी पलकों से अब भी झाँक रही थी मुझे,
तू नींद में मेरा नाम बुदबुदा रहा था,
तेरे इश्क़ की मासूमियत मलंग बना रही थी मुझे।
उस दिन मैं तुझे बस ऐसे ही घंटो तकती रही,
तेरी बाते, तेरी शरारतें, तेरी हरकतें
याद करके अकेले ही ठहाके लगाती रही ।
रात और भी गहरी होने लगी,
बेख़बर के अगली सुबह और भी गहरी होने वाली है,
मेरी पलके भी अब भारी होने लगी।
सियाह रंग की सुबह थी वो,
बेरंग हुआ था समां,
मेरी ज़मीन नहीं है पैरो तले,
गुम हुआ है कहीं आसमां।
तू नहीं है अब मेरे पास,
हाँ केवल जिस्मानी तौर पर।
तेरी खुशबू अब भी आती है इसी कमरे से,
चादर पर पड़ी सिलवटों से,
आधी खुली खिड़कियों से
दरवाजो से
दीवारो से
मेरी रूह से
हाँ तू नहीं है ,
केवल जिस्मानी तौर पर।
तेरी शरारते अब अभी झांकती है मुझे
टीवी के रिमोट से
बिस्तर के तकिये से
तेरे नए वाले चश्मे से
वो काले वाले पुराने कुर्ते से
हाँ तू नहीं है,
केवल जिस्मानी तौर पर।
तेरे वो बिना ताल के गीत
गुनगुनाता है घर का टेबल
गुनगुनाता है वो बालकनी में रखा पैधा
गुनगुनाती हूँ मैं
अक्सर यूँ ही
हाँ तू नहीं है ,
केवल जिस्मानी तौर पर।
तेरी खुशबू अब भी आती है इसी कमरे से,
चादर पर पड़ी सिलवटों से,
आधी खुली खिड़कियों से
दरवाजो से
दीवारो से
मेरी रूह से
हाँ तू नहीं है ,
केवल जिस्मानी तौर पर।
तेरी शरारते अब अभी झांकती है मुझे
टीवी के रिमोट से
बिस्तर के तकिये से
तेरे नए वाले चश्मे से
वो काले वाले पुराने कुर्ते से
हाँ तू नहीं है,
केवल जिस्मानी तौर पर।
तेरे वो बिना ताल के गीत
गुनगुनाता है घर का टेबल
गुनगुनाता है वो बालकनी में रखा पैधा
गुनगुनाती हूँ मैं
अक्सर यूँ ही
हाँ तू नहीं है ,
केवल जिस्मानी तौर पर।
हवा का सरसराना
दिन का ढलना
पत्तो का झड़ना
सांसो का चलना
कुछ भी नहीं,
जिसमे तू नहीं होता।
यूँ तो सालो बीत गए,
के तू नहीं है अब,
मेरी दुनिया में कुछ भी ,
जिसमे तेरा वजूद नहीं होता।
हाँ तू नही
केवल जिस्मानी तौर पर।
मैं बेशक हूँ जिन्दा,
केवल जिस्मानी तौर पर।

मेधा भट्ट की अन्य रचनाएँ।

Related

दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर। अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ खत्म हो चुका है उपन्यास बहुत सारे अपरिचित चेहरे बहुत सारे शोरों में एक शोर एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता वह

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: