वसीयत

अपने पूरे होशो – हवास में
लिख रही हूँ आज मैं
वसीयत अपनी!

मेरे मरने के बाद
खंगालना मेरा कमरा
टटोलना हर एक चीज़
घर भर में बिन ताले के
मेरा सामान बिखरा पड़ा है

दे देना मेरे ख़्वाब,
उन तमाम स्त्रियों को;
जो किचन से बेडरूम
तक सिमट गयी अपनी दुनिया में
गुम गयी हैं –
वे भूल चुकी हैं सालों पहले
ख़्वाब देखना!

बाँट देना मेरे ठहाके –
वृद्धाश्रम के उन बूढों में
जिनके बच्चे –
अमेरिका के जगमगाते शहरों में
लापता हो गए हैं

टेबल पर मेरे देखना –
कुछ रंग पड़े होंगे;
इस रंग से रंग देना
उस बेवा की साड़ी
जिसके आदमी के खून से
बॉर्डर रंगा हुआ है
तिरंगे में लिपट कर
वो कल शाम सो गया है

शोखी मेरी – मस्ती मेरी;
भर देना उनकी रग – रग में –
झुके हुए हैं कंधे जिनके,
बस्तों के भारी बोझ से!

आंसू मेरे दे देना,
तमाम शायरों को –
हर बूँद से ,
होगी ग़ज़ल पैदा
मेरा वादा है!

मेरी गहरी नींद और भूख
दे देना ‘अंबानियों’ को
‘मित्तलों’ को –
न चैन से सो पाते हैं बेचारे
न चैन से खा पाते हैं!

मेरा मान , मेरी आबरू;
उस वेश्या के नाम है –
बेचती है जिस्म जो;
बेटी को पढ़ाने के लिए!

इस देश के
एक-एक युवक को
पकड़ के –
लगा देना ‘इंजेक्शन’
मेरे आक्रोश का-
पड़ेगी इसकी ज़रुरत,
क्रान्ति के दिन उन्हें!

दीवानगी मेरी
हिस्से में है
उस सूफ़ी के
निकला है जो –
सब छोड़ कर,
ख़ुदा की तलाश में!

बस!

बाक़ी बचे –
मेरी ईर्ष्या,
मेरा लालच,
मेरा क्रोध,
मेरे झूठ,
मेरा स्वार्थ –
तो ऐसा करना
उन्हें मेरे संग ही जला देना!

 

किताब अमेज़ॉन पर उपलब्ध है।

Related

दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर। अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ खत्म हो चुका है उपन्यास बहुत सारे अपरिचित चेहरे बहुत सारे शोरों में एक शोर एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता वह

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: