वसुधा के काँधे पर नित प्रति चढ़ आती है वेला
सहज सुभग सा रात्रि चहक कर चंदा जी भर खेला
दूब और चन्दन की ऊँगली पकड़े वो चलता है
निशा बढ़े तो परछाई सा गज भर वो बढ़ता है
ऐसा है शशि रूप सुहाना, सुंदर, सलिल अकेला
मन मोहे और मोहे तन को, मोहे समझ न आवे
ओस की पाती रोज़ उड़े पर भोर भी पढ़ ना पावे
क्या लिखता है क्या पोंछे यह स्याही गीली रक्खी
जाग-जाग कर खूब निहारूं पर ना पाती दिखती
कैसा है शशि रूप सुहाना, कैसी है यह वेला
नित प्रति होता वृहद पुष्प सों, सुंदर, सलिल अकेला
कुंजन में बैठा भँवरा और संग में उसके माली
मधु कर में है डाल रही ज्यों हो सूरज की लाली
देख रहे हैं दोनों उस मधुकरिये की मधुकरनी
जिसे प्रकृति ने ज्ञान दिया तुम लो धतूर से छलनी
बीती हुई निशा में मैंने देखे सब यह करतब
वसुधा के काँधे पर बैठी चाँद की ऐसी भी छब
कैसा है शशि रूप सुहाना, कैसी है यह वेला
ऐसा है यह रूप पुष्प सों, सुंदर, सलिल अकेला।।
‘Vasudha Ke Kandhey Par’ A Hindi Poem by Ankit Pandey