इरफ़ान : वो कैमरे में झाँक भर ले


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राजस्थान साहित्य अकादमी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘मधुमती’ के ताज़ा मई 2020 अंक में अभिनेता इरफ़ान पर मेरा यह विशेष आलेख प्रकाशित हुआ है। आलेख ‘इरफ़ान: वो कैमरे में झांक भर ले‘ नाम से है। इरफ़ान अब भी स्मृति में बने हुए हैं। निश्चय ही बेहतर की गुंजाइश बनी है। पर मैं कुछ लिख सका, इसका भी संतोष है। इस अंक में वरिष्ठ रचनाकारों के साथ प्रकाशित हो पाने की खुशी भी है। सम्माननीय अग्रज अनिरुद्ध उमट जी ने बहुत सी बातें लिखने के दौरान समझाईं। शीर्षक उन्हीं का सुझाया हुआ है।


रिचर्ड शेकनर-लीसा वोल्फोर्ड द्वारा संपादित पुस्तक ‘द ग्रोटोव्स्की सोर्सबुक’ में पोलैंड के महान नाटककार-चिंतक जर्ज़ी ग्रोटोव्स्की कहते हैं, ‘‘प्रतिभा के बारे में मैं क्या सोचता हूँ? सबसे पहले तो यही कि क्या ऐसी कोई चीज़ होती है? मुझे यह विश्वास है कि प्रतिभा की कमी जैसा तो कुछ होता है। यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब – वास्तविक अर्थो में, कोई व्यक्ति उस जगह हो, जहाँ उसे नहीं होना चाहिए’’। इस बात के सिरों को खोलते हुए अभिनेता नसीरुद्दीन शाह एक साक्षात्कार में मशहूर अभिनय शिक्षक स्टेला एडगर की बात को याद कर कहते हैं, ‘‘आपकी प्रतिभा आपके काम के चुनाव पर निर्भर करती है। और इसलिए अभिनेता को उसकी फ़िल्मों के ज़रिये याद किया जाता है’’। इस बात में सच्चाई लगती है। नसीर आगे कहते हैं, ‘’अगर आप महान अभिनेता हैं और आपने कोई उल्लेखनीय/यादगार फ़िल्म नहीं की तो आने वाली पीढ़ी के लिए आपको याद रख पाना असंभव है। मार्लेन ब्रांडो का नाम आते ही आप ‘गॉडफ़ादर’, ‘ऑन द वाटरफ़्रंट’, ‘स्ट्रीट कार नेम्ड डिज़ायर’ को ही याद करते हैं। इस दौरान उनकी अभिनीत कई और फ़िल्में आपको याद भी नहीं रहतीं’’। एडगर का यह कथन हालाँकि लिखे हुए पात्र के चारित्रिक गुण-दोषों और उसे प्रदर्शित करने के संबंध में ज़्यादा है मगर इस बात को मोटे अर्थो में ग्रहण कर, उसे कला के विभिन्न माध्यमों और आयामों में देखा जा सकता है। यह नश्वर दुनिया में कलाकार की अमरता और अमिट छाप रह जाने की उत्कंठा से संभव है। सिनेमा जैसे कला माध्यम के लिए प्रतिभा, चुनाव और याद के इन संदर्भों में इरफ़ान जैसे अभिनेता की हदों में आवाजाही निश्चित रूप से उनकी योग्यता, फैलाव और अपार लोकप्रियता को जानने का आधार हो सकती है। निश्चित ही इरफ़ान समानान्तर हिन्दी सिनेमा के बाद की पीढ़ी के सबसे प्रमुख, गुणी और असाधारण अभिनेता थे। और इस समय दुनिया के बेहतरीन अभिनेताओं में शुमार किए जाने वाले कलाकारों में एक। विश्व सिनेमा का पैमाना निश्चित रूप से इरफ़ान की क़ाबिलियत को दर्शाता है। यही इस ऊँचे पाये के कलाकार के क़द को मापने और उसे सही अर्थों में प्रतिष्ठित करने का अवसर भी। इरफ़ान का काम इस बात की गवाही ख़ुद ही देता है कि विश्व सिनेमा के इतिहास में उन्हें ससम्मान याद किया जाये। और यह भी कि उनकी जगह भी तय की जाये। उनके काम को मंत्रमुग्ध हो कर देखने, उनकी ऊर्जाभरी उपस्थिति को भरपूर निहार लेने और आलोचना के मापदण्डों पर विमर्श के बाद इरफ़ान को विश्व सिनेमा के चुनिन्दा अभिनेताओं की उसी सूची में रखा जा सकता है जिसमें अमेरिका, फ़्रांस, इटली, जापान, चीन, द. कोरिया, ईरान, हंगरी और हिंदुस्तान सहित दुनिया के तमाम देशों के सिनेमा के अभिनेता मौजूद हैं। वे अभिनेता जिन्होंने न केवल छाप छोड़ी बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए मिसाल भी क़ायम की और मापदंड भी।

सिनेमा का प्रतिनिधि चेहरा बने अभिनेता की लोकप्रियता और उसके असर को मापना भी असंभव है। किसी कहानी के ढंग या उसकी कथावस्तु के अनुरूप बदले चरित्र में अभिनेता का चेहरा सबसे पहले किसी दर्शक के पास आता है। और असर के रूप में वह चेहरा ही सारे अनुभवों का द्वार भी होता है। इसीके ज़रिये सिनेमा के विचार या अनुभव की पड़ताल के बहुत सारे पड़ावों तक की यात्रा तय होती है। कम से कम सिनेमा का आम दर्शक अपने अवचेतन में इन्हीं के साथ बात करता है। अभिनेता के द्वारा अभिनीत चरित्र इसलिए भी पश्चिमी सिनेमा में (या इतर भारतीय सिनेमा) ‘साइको-एनैलिटिक’ व्यवहार के साथ कथानक में प्रवेश करता है। अभिनय की पढ़ाई के विभिन्न प्रचलित सिद्धान्त मसलन मैथड एक्टिंग, साइको-एनिलिटिकल अप्रोच या स्टैनीलाव्स्की, माइकल चेखव, ली स्ट्रासबर्ग, ग्रोटोव्स्की जैसे शिक्षक शारीरिक व्यवहार, बाह्य और आंतरिक बोध, चाल, आवाज़, अंदाज़, चरित्र आदि के ज़रिये लिखे हुए पात्र और उसकी ‘डिटेलिंग’ में से खोजने और अभिनीत करने पर ज़ोर देते हैं। भारतीय सिनेमा में रस सिद्धान्त उसके नाटक से आया है। इसलिए यहाँ की कहानियों में अनुभूति पर ज़ोर दिया जाता रहा है। यहाँ, ख़ास तौर पर हिन्दी सिनेमा के अभिनेता विशिष्ट शैली में संवाद कह कर, अपनी शैली में नाच कर अथवा पार्श्व से किसी गायक द्वारा गाये जा रहे गीतों के ज़रिये अपनी मन:स्थिति को दर्शा कर करोड़ों दिलों पर राज करते आए हैं। ज़ाहिर है, ऐसे में किसी तर्क अथवा मनोविज्ञान पर बात करना बहुत मायने नहीं रखता। इरफ़ान और उनका अभिनय यहीं अपने समवर्ती या पूर्ववर्ती अभिनेताओं से अलग हो जाता है। नायक, खलनायक या चरित्र अभिनेता के रूप में किसी भी एक ‘इमेज’ में बँधा-बँधाया नहीं। भारतीय रस सिद्धान्त के अनुरूप किसी भी रस के निर्वहन की भूमिका में चुस्त और मुफ़ीद। उनकी फ़िल्मों में ये सारे रूप नज़र आते हैं। मसलन, ‘बिल्लू’ का भोला हज्जाम, ‘हासिल’ का सरफिरा रणविजय, ‘हिन्दी मीडियम’ का सहज और ठेठ देसी राज, ‘रोड टू लद्दाख’ का संशय और उत्तेजना से भरा शाफ़िक, ‘पान सिंह तोमर’ का लाचार और संजीदा पान सिंह, ‘द नेमसेक’ का भावप्रवण अशोक गांगुली, ‘क़रीब क़रीब सिंगल’ का दिलफेंक, बड़बोला मगर भीतर से चुप्पा योगी आदि।

इरफ़ान का अभिनय सहज है। किसी आडंबर या अतिरेक के बग़ैर। ‘एफ़र्टलेस’। किसी दृश्य में संवाद के बीच उनका बस देख भर लेना ही काफ़ी है। सिनेमा में अभिनय की यह अप्रोच मैथड, रियलिस्टिक, माइज़नर सहित तमाम किताबों को पढ़ने, रियाज़ करने के बाद अपनी ‘स्टाइल’ को विकसित कर लेने की तरह है। इरफ़ान का मानना था, ‘‘तमाम अनुभवों से मैंने यही सीखा है कि अभिनेता कहानी कहने का एक ज़रिया है। इसमें इतना ध्यान रखा जाना चाहिए कि किरदार को निभाते समय अभिनेता का व्यक्तिगत ‘प्रोजेक्शन’ न हो’’। कैमरा आँखों के ज़रिये मन के भाव पकड़ लेता है। इरफ़ान कैमरे में झाँक कर जैसे दर्शक के मन में झाँक कर देख लेते हैं। उनके लिए अभिनय, किसी किरदार से स्वयं किसी नए अनुभव को लेने और दर्शकों को हर बार नयेपन के साथ कहानी का रस देने वाला व्यवहार है। चल रहे किसी भी दृश्य में उनका अभिनय बाक़ी अभिनेताओं को प्रतिक्रिया देने, उसी माहौल से कुछ अनूठा निकालकर तुरंत लौटा देने का काम करता है।

लंबा कद, छरहरा बदन, दमदार आवाज़, नशीली आँखें, समंदर पार की शोहरत वाला नूर चेहरे पर और साथ में छोटे शहर का पानी भी। हँसी में बच्चों-सी चुहल जिसमें गालों में गड्ढे पड़ते रहे (पता नहीं किसी निर्देशक की नज़र पड़ी क्यों नहीं उनकी हँसी पर)। कहानी की बारीक़ियों पर बाज़ जैसी नज़र। बात कहते-कहते आँखों को घुमाने की अदा। चेहरे को हल्का-सा मोड़कर और फिर झटका देकर हाँ या ना कहने का अंदाज़। किसी संवाद को बोलते हुए बीच-बीच में मुँह खुला रख छोड़ना और फिर उसे बहुत धीरे से बंद कर अगले किसी ‘रिएक्शन’ पर आना। और इसके इतर, संवाद बोलते-बोलते बीच में जीभ को निकाल कर या होठ के किनोर पर रख हल्का-सा ‘पॉज़’ लेते फिर उसी ‘इमोशन’ में संवाद कहना। (किरदार की आत्मा में घुसकर उसे बाहर लाने की तड़प उनके किसी भी साक्षात्कार में सुनी जा सकती)। इरफ़ान के चेहरे पर आई इन अनुभूतियों को फ़िल्म के किसी भी दृश्य में महसूस करते हुए, कहानी की यात्रा में बहना दर्शकों के लिए किसी जादू से कम नहीं। इरफ़ान की ये अदाएँ उनको देखने की दर्शकों की आदत में शामिल हैं। केवल चेहरे से दृश्य और घटना का प्रभाव बढ़ा देने में इरफ़ान ‘एक्सपर्ट’ रहे। ये तो हुई ‘क्लोज़-अप’ की बात। ‘मिड’ और ‘लॉन्ग शॉट’ पर भी आइये। अमिताभ बच्चन के बाद जिस ठसक के साथ हाथों को मोड़ कर कमर पर रखते हुए वे जब भी दिखाये दिये, वहाँ दर्शकों ने उनसे ‘एटिट्यूड’ भी सीख लिया। इस अदा में इज़ाफ़ा यह भी कि एक हाथ कमर पर है या शरीर के ‘बैलेंस’ को बनाते हुए प्रयुक्त न हो रहा हो मगर दूसरा हाथ (ज़्यादातर सीधा) चेहरे के साथ तालमेल बनाते हुए कुछ समझा रहा। चलते या किसी दृश्य में दौड़ते हुए हल्के से पीछे पलटने पर जो चेहरा दिखता उससे किरदार का ‘कनेक्ट’ और असर फिर से दर्शकों के पास रह जाता। और इन सबके बाद उनके गले से निकली रवेदार आवाज़ से ‘क्या भैया’,’ अबे’ जैसे शब्दों के अलावा हाँ या ना के लिए प्रयुक्त ध्वनियों के असर का तो कहना ही क्या!

चलते दृश्य में अगर कोई दूसरा उनके सामने कुछ कह रहा तो उस समय कहानी के माहौल के हिसाब से चरित्र का ‘रिएक्शन’, मसलन – सर खुजाना, आँखों को इधर-उधर घुमाना, सोचना, किसी को ध्यान से देखना, हल्की-सी मुस्कुराहट देना, संवादों में परंपरागत हिज्जों से अलग किसी ख़ास शब्द पर ज़ोर देना, किसी शब्द को धीरे तो किसी को तेज़ी से बोलते हुए निकल जाना, आवाज़ का इस्तेमाल अंदाज़ के लिए करना – यही सब तो इरफ़ान को इरफ़ान बनाता है। और इन सब से इतर, केवल चंद सेकंडों के लिए कैमरा उनके सामने रख दें और इरफ़ान बस इस कैमरे में झाँक भर लें तो भी एक दर्शक के पास रखे आह और वाह के सारे विशेषण कम पड़ जाएँगे। यक़ीनन, यह सब थिएटर की ट्रेनिंग से सिनेमा में आया मगर कभी भी नक़ली न लगा। या सिनेमा की भाषा में ‘कन्विंसिंग’ लगते हुए ‘कल्ट’ हो गया। इनमें से किसी भी अदा में कोई भी ‘मेलो-ड्रामा’ नहीं। एकदम ‘नैचरल’। अभिनय की किताबें पढ़कर या बारीकियाँ सीख कर उसे तकनीकी अभिनेता की तरह इस्तेमाल करने की बजाए ‘मैनरिज़्म’ स्थापित कर देने का हुनर। जैसे सचिन तेंदुलकर का ‘स्ट्रेट ड्राइव’। जैसे जादूगर का दोनों हथेलियों की ‘रिद्म’ में पलक झपकते ही अंडा या किसी सिक्के का निकालना। असल कलाकारी तो यह है। अपने हुनर कि ‘प्रैक्टिस’ करते-करते किसी किरदार या ‘सिचुएशन’ में सीखे हुए को ‘मास्टरी’ के साथ ‘अप्लाई’ करना। इतनी सफ़ाई से कि लगे जादू ही हुआ। फिर वाह ही निकले। या वो भी कम ही पड़े। और वो असर पैदा हो दर्शक के मन में कि फिर छूटे ही ना। इरफ़ान इस तरह से अपने समय में सिनेमा और अभिनय की दुनिया में बहुत आगे निकल जाते हैं। इतना आगे कि अब उन्हें किसी की आवाज़ भी सुनाई नहीं दे रही। किसी फ़िल्म या धारावाहिक में जब भी वे दिखे तो गली, मोहल्ले या नुक्कड़ के दर्शक से से लेकर थिएटर की रिहर्सल कर रहे सपनीले कलाकार को हर बार वे अपना ही कोई हिस्सा लगे।

इरफ़ान जैसे प्रतिभा के विस्फोट का दुनिया से चले जाना दुखी करता है। एक ऐसा अभिनेता जिसने एक पूरी ‘जनरेशन’ को मुत्तासिर किया। जिसने लंबी जद्दोजहद के बाद ख़ुद को साबित कर दिया। जिसने अभिनय को लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ पढ़ने के बाद ख़ुद को गढ़ दिया। इरफ़ान होने के मायने क्या थे यह तब समझ आता है, जब आज हिन्दी सिनेमा में ढूँढने पर भी उनके क़द का कोई आस-पास दिखाई नहीं दे रहा। वे हिन्दी सिनेमा के लिए प्रयुक्त ‘स्टार इमेज’ वाले वास्तविक अभिनेता हैं। वह ‘स्टार’ जिसने विश्व सिनेमा और निर्देशकों की जमात में हिंदुस्तान का प्रतिनिधित्व किया। वह अभिनेता जिसने थिएटर की पढ़ाई और उसके गुर सीख कर 13-14 बरसों का लंबा संघर्ष केवल अपनी पहचान या जगह बना पाने में किया। जिसने इस दौरान मिले छोटे-बड़े सभी किरदारों का उपयोग अपने आप को तराशने में किया। वो जिसने अपने को वास्तविक अर्थों में तपा कर खुद को सोना साबित किया। और जब उसका समय आया तो काल ने असमय छीन लिया। सही अर्थों में इरफ़ान पढे-लिखे, समझदार, बुद्धिजीवी अभिनेता बन गए। एक ऐसे देश में जहाँ कलाओं की पढ़ाई, पढ़ाई नहीं मानी जाती। कम से कम उस दौर में तो नहीं ही जब इरफ़ान ने शुरुआत की। उस लीग में फ़िलहाल अभी और कोई नहीं।

अभिनेता के लिए निश्चित ही अपने समय में कोई और व्यक्ति बन जाने की चाह सबसे बड़ी होती है। अक्सर अभिनेता यह भी कहते हैं कि संवादों और कहानियों और पात्रों के ज़रिये वो सब कह पाते हैं जो एक व्यक्ति के तौर पर वे सोचते रहते हैं। शोहरत, सफलता, धन आदि के बाद तो निश्चित ही अभिनेता ही बने रहने की चाह और ख़्वाहिशों को पाने का सपना किसी के रोके नहीं रुकता। यहीं इरफ़ान के अभिनय से इतर अभिनय की भूख पर बात करना ज़रूरी लगता है। इरफ़ान शायद केवल अभिनय के लिए बने थे। कोई चरित्र उनसे कितना ले रहा वह अलग बात है लेकिन व्यक्तिगत तौर पर वह उन्हें अनुभव से समृद्ध कर रहा, इस पर इरफ़ान का ज़ोर हमेशा रहा। इस भूख के रास्ते बाज़ार से होते हुए जाते हैं, यह इरफ़ान ने बहुत पहले जान लिया था। किसी अभिनेता के लिए कला सिनेमा, ‘इंडी’ या फ़ेस्टिवल का सिनेमा और लोकप्रिय सिनेमा में काम करने के तरीक़े और उद्देश्य बिलकुल अलग होते हैं। कला सिनेमा में निर्देशक अपनी तरह से अभिनेता का प्रयोग करने में पीछे नहीं रहता। लोकप्रिय या ‘कमर्शियल’ सिनेमा बहुत से अभिनेताओं के लिए पैसा कमाने का साधन रहा जिसके बाद आसानी से वे नि:संकोच ‘इंडी’ या सराही जाने वाली फ़िल्मों का हिस्सा बनना पसंद करते हैं। या वे भूमिकाएँ कर सकते हैं जिससे उन्हें कलात्मक संतुष्टि मिलती है। या जिसके ज़रिये उन्हें यक़ीन रहता है कि यह काम उनके न रहने के बाद भी जीवित रहेगा। इरफ़ान संभवतः हिन्दी सिनेमा में इस समय अकेले अभिनेता रहे जो ‘फ़ेस्टिवल’, ‘इंडी’ या ‘कमर्शियल’ सिनेमा में समान क़द और वज़नदारी के साथ काम करते रहे। साथ ही उन जैसे अभिनेताओं के कारण ही मुख्यधारा और समानान्तर सिनेमा के बीच का फ़र्क ख़त्म हुआ। ‘पान सिंह तोमर’ और ‘हिन्दी मीडियम’ जैसी इरफ़ान की पुरस्कृत भूमिकाएँ इसका उदाहरण हैं।

सिनेमा में आने और आसमान की बुलंदियों पर पहुँच जाने की इरफ़ान की यात्रा कोई साधारण यात्रा नहीं। जयपुर से दिल्ली (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय) होते हुए मुंबई और फिर हॉलीवुड के ज़रिये सिनेमा इतिहास के पन्नों पर पहुँचना उस सपने के सच होने जैसा है जिसे अभिनय की दुनिया में आने वाला हर कलाकार देखता है। मगर बात तो यह है कि हर सपना सच नहीं होता। इरफ़ान जिस मध्यमवर्गीय शहर और परिवार का प्रतिनिधित्व करते थे, वहाँ सपने देख पाना भी आसान नहीं। यह बीती हुई सदी के 80 के दशक की बात है। जब न तो संचार के साधन ही इतने थे और न ही इंटरनेट या अन्य कोई भी मंच जहाँ से दुनिया को ख़बर हो जाये। टायर का व्यापार करने वाले पिता की संतान इरफ़ान रोज़ी-रोटी की जुगाड़ में एयरकंडीशनर सुधारने का ‘टेक्निकल कोर्स’ भी कर गए और तब के बंबई में कोर्स के दौरान हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना के घर मेकेनिक की हैसियत से हो आए। जयपुर वापस आकर पंखा सुधारने वाली इलेक्ट्रिक की दुकान पर भी काम करते रहे। कॉलेज की पढ़ाई के दौरान हो रहे कुछ नाटकों में काम करने और उसी दौरान अभिनय से राब्ता बना कर, दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में सीखने की गरज से जयपुर से जब वे निकले तो उसी साल पिता का निधन हो चुका था। इन टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होते हुए नाटक की ट्रेनिंग हासिल करना, उन्हीं के शब्दों में ‘अंडे में से निकलने की शुरुआत’ था। और फिर नाटकों, किताबों, सिनेमा और सपनों की वो जादुई दुनिया इरफ़ान का स्थायी पता बन गई। यहाँ से इरफ़ान और हिन्दी सिनेमा के इतिहास का पहला अध्याय शुरू होता है। नाट्य विद्यालय में पढ़ाई के दौरान मीरा नायर ने उन्हें अपनी फ़िल्म ‘सलाम बॉम्बे’ में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका के लिए चुना था। मगर दो महीने की कार्यशाला के बाद मीरा ने पाया कि इरफ़ान की उम्र और क़द बच्चों के दल के लिए मुफ़ीद नहीं। इरफ़ान को सांत्वना हेतु चिट्ठी लिखने वाले का किरदार मिला। साल 1988 का यह सबक उनके लिए जैसे अगले 13-14 सालों तक रियाज़ की तरह काम आया।

यहाँ अगर कुछ देर रुक कर देखें तो हम पाते हैं कि हिन्दी या भारतीय सिनेमा अपने ठहराव पर था। इरफ़ान जिस लीग के अभिनेता थे उसमें नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, फ़ारुख़ शेख़ और कला सिनेमा दौर के अन्य अभिनेता उनसे बहुत आगे थे। सत्तर के दशक में शुरू हुआ कला सिनेमा अपने अंतिम दौर में था और सारे लेखक, निर्देशक, अभिनेता जैसे अपना श्रेष्ठ दे चुके थे। ‘कमर्शियल’ हिन्दी सिनेमा में इसी समय के आसपास शाहरुख़, सलमान, आमिर ख़ान जैसे सितारे और उनके बाद अक्षय कुमार, सुनील शेट्टी का दौर आने लगा था। इरफ़ान से ऊपर उस लिस्ट में केवल रघुवीर यादव थे जिनकी शुरुआती दो भूमिकाओं – ‘मैसी साहब’ में मुख्य भूमिका और ‘सलाम बॉम्बे’ में चिलम की भूमिका – ने रिकार्ड तोड़ दिये थे। ज़ाहिर है, इरफ़ान के हिस्से इंतज़ार और जब-तब किरदारों में आने के मौक़े ही बचे थे। देखते ही देखते उनके साथ या बाद आने वाले अभिनेता सितारा हैसियत पाने लगे। इरफ़ान इस दौरान ‘कमला की मौत’, ‘दृष्टि’, ‘एक डॉक्टर की मौत’, ‘पिता’, ‘जज़ीरे’, ’मुझसे दोस्ती करोगे’, ‘सच ए लॉन्ग जर्नी’ जैसी फ़िल्मों और टीवी पर ‘श्रीकांत’, ‘भारत एक खोज’, ‘किरदार’ ‘चाणक्य’, ‘चंद्रकांता’ जैसे धारावाहिकों में अच्छा ख़ासा काम करते रहे। इन सभी में जिसने भी इरफ़ान को देखा वह उनका मुरीद हो गया। कुछ आलोचनापरक श्रेष्ठ टेलीफ़िल्मों, मसलन ‘वार्ड नं. 6’, ‘लाल घास पर नीले घोड़े’ और स्टार बेस्टसेलर की कहानियों में इरफ़ान ने अपनी असाधारण अभिनय क्षमता से हतप्रभ किया। मणि कौल की ‘क्लाउड डोर’ जैसी अद्भुत फ़िल्म में वे ‘एक्स्ट्रा’ की तरह बिना संवाद के कुछ मिनटों वाले दृश्य में भी दिखे। इतने सबके बावजूद बाज़ार और सिनेमा के झण्डाबरदार उन्हें पहचानते हुए भी दूर ही रख रहे थे। और यह सब साल 2001 में आसिफ़ कपाड़िया की फ़िल्म ‘वॉरियर’ और 2003 में तिग्मांशु धूलिया की ‘हासिल’ तक चलता रहा। इरफ़ान जैसे दशकों में आने वाले अभिनेता के लिए हिन्दी सिनेमा ने लगभग 15 साल अपने दरवाज़े बंद रखे। यह इरफ़ान से ज़्यादा हिन्दी सिनेमा का दुर्भाग्य है। अद्भुत, अप्रतिम और अविश्वसनीय सहित तमाम दीगर विशेषणों वाले अभिनेता को पहचान न सकने का ऐसा उदाहरण विश्व सिनेमा में दूसरा नहीं। आश्चर्य होता है कि सुभाष घई, विधु विनोद चोपड़ा, रामगोपाल वर्मा, अनुराग कश्यप, इम्तियाज़ अली, हंसल मेहता, राजकुमार हिरानी, श्रीराम राघवन, दिबाकर बनर्जी जैसे सितारा निर्देशकों के साथ इरफ़ान की एक भी फ़िल्म नहीं। विश्व सिनेमा में तमाम उदाहरण हैं कि निर्देशक-अभिनेता की जोड़ी ने कमाल किया है। शुरुआती अमेरिकन सिनेमा में डी. डब्लू. ग्रीफ़िथ-लिलियन गिश, फ्रेंच सिनेमा में फ़्रांज़्वा त्रूफ़ो-ज्यां पियरे लियो और ज्यां लुक गोदार-एना करीना, जापनी सिनेमा में अकीरा कुरोसवा-तोशिरो मिफ़्युन/ताकाशी शिमुरा और यासुजीरो ओज़ू-चिशु रेयु, बंगाली सिनेमा में सत्यजित राय-सौमित्र चटर्जी, इटैलियन सिनेमा में फ़ेदेरिको फ़ेलिनी-मार्चेलो मास्त्रोईयान्नी/जुलिएता मसीना और माइकल एंजेलो एंतोनिओनी-मोनिका वित्ती, स्वीडिश सिनेमा में इंगमार बर्गमैन-बीबी एंडरसन/लिव ओलमैन/मैक्स वॉन सीडो जैसे तमाम उदाहरण हैं। अमेरिका में तो जॉन फ़ोर्ड, एल्फ़्रेड हिचकॉक से लेकर फ़्रांसिस फ़ोर्ड कोपोला, रॉबर्ट ऑल्टमैन, रिचर्ड लिंकलेटर, मार्टिन स्कॉर्सेसी, स्टीवन स्पीलबर्ग और टैरेंटिनों तक आज भी यह सिलसिला जारी है। ताज़ा सफल उदाहरण ईरानी सिनेमा में माजिद मजीदी-रेज़ा नाज़ी, चाइनीज़ सिनेमा में वोंग कार वाई-टोनी लुंग/मैगी चुँग और कोरियन सिनेमा में बोंग जून हो-सॉन्ग कैंग हो जैसे नाम हैं। इरफ़ान के हिस्से निर्देशक के रूप में मीरा नायर, तिग्मांशु धूलिया, आसिफ़ कपाड़िया, विशाल भारद्वाज, विक्रम भट्ट, निशिकांत कामत, अनूप सिंह के साथ एक से ज़्यादा फ़िल्में करने का मौक़ा आया। इनमें से भी केवल तिग्मांशु धूलिया के साथ इरफ़ान की जोड़ी सही अर्थों में उन्हें हिन्दी सिनेमा में असल मुक़ाम पर पहुँचा सकी। विश्व सिनेमा में यही काम मीरा नायर ने किया।

मगर इरफ़ान की कहानी तो अब शुरू होती है। ‘वॉरियर’ की अंतर्राष्ट्रीय पहचान और ‘हासिल’ की देशव्यापी सफलता इरफ़ान की मिसाल आज भी देती हैं। विशाल भारद्वाज की साल 2004 में आई ‘मक़बूल’ ने जैसे इस सफलता पर मुहर लगाई। और फिर मीरा नायर ने अपना वादा निभाते हुए अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा के दरवाज़े एक बार फिर इरफ़ान के लिए खोले। ‘द नेमसेक’ का अशोक गांगुली का किरदार जैसे इरफ़ान की आत्मा की छवि ही दिखाता है। फिर तो ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’, ‘बिल्लू’, ‘पान सिंह तोमर’, ‘द लंच बॉक्स’, ‘पीकू’, और ‘हिन्दी मीडियम’ जैसी हिन्दी फ़िल्मों सहित माइकल विंटरबॉटम की ‘द माइटी हार्ट’, डैनी बॉयल की ‘स्लमडॉग मिलिनियर’, एंग ली की ‘लाइफ़ ऑफ़ पाई’, कॉलिन ट्रेवोरो की ‘जुरासिक वर्ल्ड’, मार्क वेब की ‘द अमेजिंग स्पाइडर मैन’, रॉन हावर्ड की ‘इन्फ़र्नो’, मार्क टर्टलटॉब की ‘पज़ल’ जैसी अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्मों ने इरफ़ान को उस मुक़ाम पर पहुँचा दिया जहाँ शोहरत, दौलत, सफलता के साथ ही उन्होने इतिहास रच दिया।

इरफ़ान का अभिनेता इन फ़िल्मों में जो किरदार कर रहा था, वो उन कहानियों के थे जिनके साथ ज़िंदगी के सुख-दु:ख चलते हैं। जिनकी छाँव में दर्शक अपनी असफलताएँ और निराशाएँ भूल कर सुस्ताता है। जिनके पास जाकर अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए साहस बटोरता है। जिनके फैलाव में अपने अक्स तलाशता है। जिनमें अपना गुस्सा, नफ़रत, महत्त्वाकांक्षाएँ देखता है। ‘हासिल’ का रणविजय, ‘लाइफ़ इन ए मेट्रो’ का मोंटी, ‘मुंबई मेरी जान’ का थॉमस, ‘बिल्लू’ का बिल्लू हज्जाम, ‘पान सिंह तोमर’ का पान सिंह, ‘लंच बॉक्स’ का साजन फर्नांडिस, ‘तलवार’ का अश्विन कुमार और ‘अँग्रेज़ी मीडियम’ का चम्पक बंसल अवाम और भीड़ के किसी चेहरे का ही आदमी लगता है। इन तमाम फ़िल्मों में इरफ़ान मन के क़रीब लगते हैं। ‘ग्लैमर’ की दुनिया में विराट छवि के बाद भी पड़ोस में रहने वाले किसी शख़्स की तरह ही। दुनिया भर के निर्देशक मसलन रिडली स्कॉट, क्रिस्टोफ़र नोलन उन्हें अपनी फ़िल्मों क्रमश: ‘द मार्शन’, ‘बॉडी ऑफ लाइस’ और ‘इंटरस्टेलर’ में लेना चाहते थे। दुनिया का सिनेमा उन्हें इसी तरह पुकारता रहा। संघर्ष के समय में जब ‘जुरासिक पार्क’ पहली बार रीलीज़ हुई थी तब सिनेमा की टिकट ख़रीदना भी उनके लिए ख़र्च ही था और फिर समय ने वह दौर भी दिखाया जब उसी सीरीज़ की चौथी फ़िल्म ‘जुरासिक वर्ल्ड’ में उसी जुरासिक पार्क के मालिक साइमन मसरानी का किरदार उन्होंने निभाया। ज़ाहिर है विष्णु के वामन अवतार की तरह इरफ़ान ने केवल तीन दशकों में सिनेमा के इतिहास को नाप लिया। वे हिन्दुस्तानी सिनेमा में उसी जमात में शामिल हो गए जिसमें नसीर, ओम पुरी, पंकज कपूर जैसे अभिनेता गिने जाते हैं। और इनसे भी एक क़दम आगे विश्व सिनेमा में उनकी पूछ वेनिस से लेकर कान, बर्लिन, ऑस्कर, टोरंटो और दुनिया के तमाम ‘फ़ेस्टिवल्स’ में होने लगी। इतनी व्यापक सफलता और किसी भारतीय अभिनेता के हिस्से नहीं आई। फिर भी यह भी सच है कि विश्व सिनेमा के आज के बड़े निर्देशकों मसलन अलेहान्द्रो गोन्सालेस इन्येर्रितु, वोंग कार वाई, असग़र फ़रहादी, पॉल थॉमस एंडरसन, पेद्रो अल्मोदोवार आदि के साथ बड़ी भूमिकाओं में काम करने का उनका वक़्त आ ही गया था, और उसके पहले ही वे चले गए। इरफ़ान से यह शिकायत बनी रहेगी।

29 अप्रैल 2020 वाक़ई एक उदास दिन था। उन सबके लिए जो हिन्दी सिनेमा से प्यार करते हैं। इरफ़ान खान उन सभी लोगों के सपनों के संसार की एक कड़ी थे। वो सभी जो अपने जीवन में कभी न इरफ़ान बन पाते न ही उनसे मिल पाते। इरफ़ान की जाना हिन्दी सिनेमा की इस सदी की बड़ी त्रासदी है। इरफ़ान को न जानने वाले, उनसे कभी न मिलने वाले भी असीमित प्यार और याद से भरे थे। दरअसल, इरफ़ान की मृत्यु बहुत सारी संभावनाओं की मृत्यु है। वो संभावनाएँ जिनमें इरफ़ान जैसे अभिनेता के लिए अभी और आसमान फ़तह करने बाक़ी थे। उन्हें अभी और किरदार जीने थे। सिनेमा कला के हिस्से इरफ़ान का और बहुत सारा समय दर्ज होना बाक़ी था। हिन्दी सिनेमा इस मामले में दुर्भाग्यशाली रहा है कि उसके खाते में असमय ही कालातीत हो जाने वाले कलाकारों की लंबी फ़ेहरिस्त है। मीना कुमारी (39), मधुबाला (36), गुरुदत्त (39), स्मिता पाटील (31), संजीव कुमार (47), दिव्या भारती (19), अमजद खान (51), निर्मल पांडे (48) जैसे नाम वो हैं जिनसे सिनेमा को और जिन्हें सिनेमा से बहुत कुछ मिलना अब भी शेष था। इरफ़ान इस दुर्भाग्यपूर्ण पाँत का हिस्सा बन कर जैसे इन सभी नामों के सामूहिक दु:ख में शामिल हो गए। गुज़र जाने के बाद इरफ़ान ‘द नेमसेक’ के उसी दृश्य की तरह याद आ रहे जिसमें वे अशोक गांगुली बन कर अपने बेटे गोगोल को समुद्र दिखाने के लिए लाते हैं। पत्थरों का बना वो टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता जो कुछ दूर जाकर खत्म हो जाता है मगर जिस पर समुद्र की लहरें टकरा रहीं। अशोक गांगुली इस दृश्य को कैमरे में क़ैद करना चाहता है। फिर उसे याद आता है कि कैमरा तो कार में छूट गया। तब वह अपने बेटे से कहता है, ‘’इस दृश्य को ऐसे ही याद रखना होगा अपनी याद में’’। बेटा पूछता है, ‘‘कब तक’’? तब अशोक गांगुली थोड़ा-सा मुस्कुराता है और कहता है, ‘’हमेशा के लिए। यह भी याद रखना कि हम साथ चलते-चलते वहाँ तक आ गए थे, जहाँ से अब और कोई रास्ता आगे जाने को नहीं बचता’’! इरफ़ान अपने चाहने वालों को, उसी दृश्य की तरह हाथ पकड़कर उस जगह तक ले कर आ गए थे, जहाँ से वाक़ई आगे जाने की जगह नहीं बचती!

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