आदतें – जैसी मैंने देखीं


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पत्ती काँपकर एक साँस खींचती है
फिर गिर जाती है
हरापन एक आदत है, बदरंग होकर गिर जाना, एक फ़ैसला।

कुछ इच्छाओं को हमने कभी नहीं पहना
वे वार्डरोब में पड़ी-पड़ी बदरंग हो गईं

जिन इच्छाओं को हम जी भर पहनकर घूमे
वे अब कई जगह से फट गई हैं।

एक पत्थर इसलिए ख़फ़ा है कि
नदियों ने उससे किनारा कर लिया

एक दीवार दीमकों से डरकर
असमय ख़ुद को ढहा लेना चाहती है।

काया के तल में गहरे बैठता जाता है दुख
इसलिए उम्र बढ़ने के साथ आदमी धीमा हो जाता है

चलते समय उसके पाँव ज़मीं पर नहीं पड़ते
ख़ुशियाँ, आदमी को हल्का कर देती हैं।

हम ऐसी जलधार हैं, जिन्हें हिचकियाँ आती हैं
लेकिन हम अपने मुहानों तक कभी लौट नहीं पाते

एक दिन मैं पत्तों को झिंझोड़कर जलाऊँगी
उनसे पूछूँगी, क्या तुम परिंदों को देखकर बहक गए थे
जब उड़ने के लिए तुमने टहनी से छलाँग लगा दी?

“Aadatein-Jaisi Maine Dekhi’ A Hindi Poem by Lovely Goswami

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