कैसा मरज़ आफत बना करके फ़िज़ाओं ने दिया
इंसानियत को घाव इंसानी वफाओं ने दिया।
इंसानियत को घाव इंसानी वफाओं ने दिया।
पैदल चला है काफ़िला के गाँव मिल जाये कहीं
इस बार फिर धोखा शहर की हवाओं ने दिया।
हैं बंद इबादतगाह पूजा पाठ दरवाज़े तमाम
रब को ज़खम शायद ज़मीं वाले खुदाओं ने दिया।
सब क़ैद हैं घर में कहीं पर भूख है डर है कहीं
हमको सहारा बारहा केवल दुआओं ने दिया।
फिर लौटने को बेसबर हैं सब भरे बाज़ार में
अच्छा सबक आवाम को उसकी अदाओं ने दिया।
चारागरी चौकस कलम मुस्तैद हर पल यहाँ
कुछ आसरा कुछ हौसला सच्ची सदाओं ने दिया।