बातों वाली गली कहानी संग्रह से चर्चा में आईं चर्चित कथाकार वंदना अवस्थी दुबे का नवीनतम उपन्यास – अटकन चटकन अपने विन्यास में बेहद रोचक और पठनीय है। इसमें कथा नई नहीं है पर वह इतने रोचक ढंग से सामने आती है कि रचना अनेक अर्थ स्तरों को छूती चली जाती है। उपन्यास में स्पष्ट शब्दों में टूटते घर परिवार की चिंता है और उसमें स्त्री अधिकार और स्वतंत्रता की अपेक्षित जगह भी, पर वह किसी ऐसे विमर्श को हवा नहीं देता जो हमारी मूल्य व्यवस्था को तहस नहस कर दे।
तहसीलदार केदारनाथ पांडेय की तीन बेटियों में बड़ी सुमित्रा और मझली कुंती की यह कथा छोटी सत्यभामा को बिसरा देती है, ऐसा नहीं है। पर वह इस कथा के केंद्र में नहीं रहती, क्योंकि उसके विकास में उसकी कोई विशेष भूमिका नहीं है। भूमिका तो बड़े भाई, दादा और तिवारी जी की भी नहीं है, क्योंकि वे दोनों बहनों – सुमित्रा और कुंती के आपसी तनाव के प्रत्यक्षदर्शी ही रहते हैं जैसे इनकी दोनों की मां रहती हैं। सुमित्रा जितनी सुंदर है, कुंती उतनी ही भद्दी और बेशऊर। सुमित्रा सुन्दर होने के साथ साथ शालीन भी है और बेहद शिष्ट और मृदु। पर कुंती जैसी कुरूप है वैसी ही खल प्रवृत्ति की, जिसके कारण वह विद्यालय से लेकर घर तक में वह सुमित्रा को परेशान करती है और उसकी प्रशंसा से जलती रहती है। यह स्वाभाविक जलन और चिढ़ का भाव उसमें इतना अधिक भर जाता है कि उसके सभी मानवीय गुण लुप्त हो जाते हैं। सुमित्रा की शादी होती है। वह अच्छे परिवार की व्याहता होती है, पर दुर्भाग्य से उसके ज्येष्ठ की पत्नी गुजर जाती हैं। सुमित्रा कुंती के सभी अवगुणों और ज्यादतियों को भूलकर कोशिश करती है कि उसके ज्येष्ठ से उसकी शादी हो जाय और यह हो जाता है। सुमित्रा की इस सदाशयता को भी कुंती अपने प्रति उसकी कुटिलता समझती है और लगातार उसे नीचा दिखाने की चाल चलकर उसे अपमानित करती रहती है। घर को उसने अपनी हरकतों से नरक बना डाला है। इससे ऊबकर और दादा जी के फैसले के अनुसार वह अपने पति के पास ग्वालियर जाती है जहां कुछ और पढ़कर और बुनियादी शिक्षा का प्रशिक्षण लेकर वह अध्यापिका बन जाती है। इसकी चिढ़ में कुंती में पढ़ती है और प्रशिक्षण लेकर अध्यापकी पाती है पर उसकी प्रवृत्ति नहीं बदलती। उस्की आदतों से ही दादा यानी उसके पति असमय काल कवलित हो जाते हैं।

वह एक बार बड़े भाई के घर सुमित्रा को साथ लेकर जाती है अपनी ही भौजाई लक्ष्मी की एक सुंदर साड़ी का आँचल काटकर उसका दोष सुमित्रा पर लगाकर उसे नीचा दिखाती है। इस तरह उसका यह दुराचरण उसके सभी सहजात मानवीय गुणों को सोख लेता है और वह मानसिक रूप से इतनी जलनखोर और आक्रामक हो जाती है कि किसीकी खुशी उसे बर्दाश्त नहीं होती। रमा सहित घर में काम करनेवाले नौकरों के साथ भी वह इसी तरह अभद्र व्यवहार करती है और आसपास के लोगों से भी। पर सुमित्रा के जाने के बाद स्थाई तौर पर शासन चलाने की गरज से बारी बारी अपने दोनों बेटों के व्याह कर वह पहले अपनी बड़ी बहू जानकी को प्रताड़ित करती है , फिर छोटी बहू छाया को। लेकिन उसका स्वभाव खुद उसके लिए मुसीबत बन जाता है जब अपमानित होकर उसे जीने पर विवश होना पड़ता है।
अंत में प्रदेश जा विराजे दोनों बेटों को वह हिस्से की ज़मीन देकर आसपास के बच्चों को पढ़ाने की सेवा कर प्रायश्चित करती है, पर कुछ भी शेष नहीं रहता।
उपन्यास पुरानी किस्सागोई में ढला है और रोचक आख्यान में विन्यस्त होकर अपने कथारस में बांधे रखता है। इसमें दो चीजें एक साथ साधी गई हैं- पहला यह कि टूटते परिवार को बचाने के लिए सुमित्रा जैसी पात्रता की जरूरत की पैरोकारी तो दूसरा यह कि स्त्री मुक्ति या स्वातन्त्र्य की जगह को परिवार में पा सकने की सम्भावना की खोज। दोनों ही स्तरों पर उपन्यास सफल दिखता है। यह भी गौरतलब है कि कुंती की अस्वाभाविक मनोदशा को दिखाकर वे यह भी सिद्ध करने में सफल हुई हैं कि सहजात वैमनस्य और ईर्ष्या हमें अमानवीय बना देता है और हम दूसरों को दुःख देकर ही खुश हो जाया करते हैं। यह एक मानसिक रोग है जिसका निदान न होने पर हम कहीं के भी नहीं रहते। इस रूप में यह रचना एक भुक्त अनुभव को जीवन के बड़े कैनवस पर जी सकने का बड़ा प्रयत्न है जिसकी सराहना की जानी चाहिए। इस उपन्यास के जरिए सधे हुए शिल्प, किसागोई में ढली कथा, हमारे ही जीवन के देखे भाले चरित्र और साधारण सी लगनेवाली स्त्रियों के माध्यम से एक नई दृष्टि को रखने में समर्थ वंदना अवस्थी दुबे एक तरह से उस कथा को वापस लाने में सक्षम दिख रही हैं जो अपठनीय शिल्प और असहज विमर्श में भूल बिसर सा गया है।
इस कृति के प्रकाशन के लिए शिवना प्रकाशन को भी बधाई देना बनता है।
Vandana Awasthi Dubey’s book Atkan Chatkan.
Hindi Book Review By Jyotish Joshi