आज चल रहे हालात देख कर
छिपाकर रखने लगा हूँ
अपनी मासूम कविता, ग़ज़ल
कहानियों को
अपने ही आलेख, व्यंग्य
की बुरी नज़रों से
दोनों जाये हैं,
एक ही कलम से,
फिर भी मन नहीं मानता
उन्हें एक साथ
अकेले छोड़ने को,
जाने कब कौनसा आलेख
हवस की स्याही में
डूब जाए,
और किसी कहानी के
सतित्व पर लांछन लगाए;
क्या पता कोई व्यंग्य
कहीं अपराधी तृष्णा
बनकर उग आए,
और किसी कविता कि
मासूमियत निगल खाए!
मन करता है खींच दूँ
एक दीवार
आलेख के आर-पार,
ताकि घूम सके
कहानियां खुली,
साहित्य के मैदान में;
कविताएं उतरने लगे
कागज पर
बिना किसी भय के,
गुनगुना सके ग़ज़लें
अपने आपको,
इन्हें हो
सुरक्षा का विश्वास
और आलेख को
हो बंदिशों में
रहने का एहसास।