हम एक पूरी पीढ़ी हैं
जो जमी जा रही है,
हमारे दिल और जुबान बर्फ़ हो चुके हैं
आत्मा का एक पूरा हिस्सा ठंडा पड़ चुका है
ठंड से जमती है बर्फ़
निष्ठुरता से जमते हैं लोग।
जुबान ऐसी जमी –
सारे शब्द मुंह के अंदर ही रह गए,
जमकर बहुत कुछ… बहुत भीतर छूट जाता है।
हमने खुद को बर्फ़ बनाया
इसी भरोसे से कि हम बचे रह जाएंगे
जो शेष रहा-
उसमें सब था
सिवाए हमारे
सब कुछ बचाने की चेष्टा में
कुछ ना बचा पाने का दु:ख
हमेशा रह जाता है।
एक रिश्ते के खत्म होने के बाद
व्यक्तित्व में आते हैं कई पड़ाव
बर्फ़ बन अपनी तरलता खो देना
इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है।
हर परिस्थिति से निपटने ने के बाद भी
मन के किसी कोने में घात लगाए
बैठी स्मृतियां, शरद की भीषण ठंड सी
बर्फ़बारी कर जमा देती हैं हमारे पाँव को।
बिरहा की पीड़ा
शरीर से सोख लेती है सारी गर्मी
बर्फ हटने के बाद।
हम एक पूरी पीढ़ी हैं
जो शीत युद्ध से घिरी है
हर जगह एक प्रोक्सी वॉर है।
और जो शेष दिखाई दे रहा है
वो मनुष्य है या बर्फ़
‘Barf’ A Hindi Poem by Abhay Bhadouriya