पहला तो किसी ने दिया ही नहीं
माँ के पीछे – पीछे, गर्दन झुकाये
नगर के वैभवशाली मोहल्लों से,
चमचमाते बाज़ार से जब वह गुज़रता है
मैंने एक शर्म उठती देखी है उसके भीतर
जो दुर्गंध बनकर घेर लेती है उसे।
छटपटाता हुआ वह
भागने की तरह चलने लगता है
कि ये अपमान भरे रास्ते कट जाएं पलक झपकते
और आ जाये आदिम देहात…
खेतों का सीमांत… और राबड़े वाले तालाब
उन सबमें कितना अपनापन है।
उसके मन मे जो ‘कचोट’ है
उसे माँ भूसे के साथ कब का चबा चुकी
पर उसके गले मे हड्डी की तरह अटकी हुई।
भूख से ज़्यादा विकट है
संकट – पहचान का
इसी त्रासदी के खूंटे से वे बंधे हुए
इसी त्रासदी की सड़क से वे गुज़रते हुए।
कितना दुखद है
कोई दरवाज़ा खुलता नहीं उसके लिए
किसी खिड़की से आती नही आवाज़
“ले , आ !! आ !! आ !!”
किसी डिब्बे के तलहट की रोटी
नहीं होती किसी भैंस के बच्चे के वास्ते
तो पकवानों भरी नैवेद्य की थाली का
सपना वह क्या देखे
उसके भी गलथन
गाय के बछडे सरीखे मुलायम और झालरदार
तो इन्हें सहलाने के लिए, हाथ आगे क्यों नहीं आते?
आसपास फैले पाखंड ने
उसे प्रश्नों से भर दिया था –
“आंदोलन चलाने वाले लोग
हमारी रक्षा के बारे में चुप रह जाते हैं?”
“हम से ये भेदभाव क्यूँ , माँ?”
माँ की आँखों मे बिजली की एक कौंध चमकी थी
आवाज़ कुछ देर तक आई नहीं
उसका चेहरा उस वक़्त
चलती रेल से फेंक दिए गाँधी की तरह लगा
प्रश्न फिर था –
“क्या गोरेपन की ग़ुलामी से आज़ाद होना और भी मुश्किल है?”
माँ का चेहरा सलाख़ों में क़ैद मंडेला की तरह हो गया था
फिर कुछ देर चुप्पी छाई रही
आकाश पर बहुत घनी और स्याह रात फैल गई
अचानक मुझे लगा-चतुर्दिक पसरा यह गहरा काला रंग
भैंस और उसके बच्चे का है
और जैसे वे दुनिया से पूछ रहे हों
“क्या इस रंग की कोई अहमियत नहीं?”