छिछोरे जैसा कि नाम से ही ज़ाहिर है ,एक हल्की-फुल्की फ़िल्म है पर एक गंभीर विषय पे। और अगर इसके डायरेक्टर ‘दंगल’ वाले नितेश तिवारी ना होते तो शायद इसे देखने जाने का प्लान ही न बनता।
फिल्म शुरू होती है बेटे के IIT-JEE के रिजल्ट के साथ,जहाँ हर बाप ही तरह फ़िल्मी बाप का भी बेटे को IIT भेजने का सपना होता है और हर नॉट-सिलेक्टेड विद्यार्थी की तरह बेटा डिप्रेशन में आ जाता है। हम में से 90 % लोगों के साथ ये सब हो चुका है। पर हम सब मोटी चमड़ी वाले सुसाइड नहीं किए, इससे पहले पिताजी शर्मा जी के बेटे का नाम लेते हमने पटेलजी, तिवारी जी,वर्मा जी आदि के,हमारे साथ फेल बेटों के उदाहरण गिना दिए। और हम बहुमत में थे, तो लोकतंत्र के हिसाब से सही भी थे।
खैर, बेटा डिप्रेशन में सुसाइड ट्राई करता है और फिर कुछ मार्जिन से उसमें भी फेल हो जाता है और क्रिटिकल कंडीशन में हॉस्पिटल में आ जाता है। बेटे को जीने की इच्छा नहीं होती,क्योंकि वो खुद को लूज़र समझता है। और तब पिताजी अपनी कॉलेज लाइफ की लूज़र वाली कहानी सुना के उसे inspire करते हैं (दो नेगेटिव मिला के पॉजिटिव बना देते हैं).
मेरे हिसाब से फिल्म का नाम ‘लूजर्स’ ज्यादा सूट करता।
संगीत के हिसाब से फिल्म ओके ओके है। एक दो गानों को छोड़ के कुछ याद नहीं रहता।एक्टिंग में सबने ठीक एक्टिंग की है। पर सब के यंग वर्शन ज्यादा अच्छे लगे हैं और कुछेक को छोड़ के कोई भी ओल्डर वर्शन में कन्विंसिंग नहीं लगा।मतलब इस हद तक कि आप सिर्फ उनके पुराने दिनों (कॉलेज लाइफ) को ही देखना चाहते हैं। भले ही डिप्रेशन मुख्य थीम रहा हो,ये आपको सिर्फ डायवर्सन जैसा ही लगता है। सुशांत सिंह का गेटअप और दाढ़ी रामलीला के जामवंत जैसी लग रही थी, टोटली आउट ऑफ़ प्लेस। मान सकते हैं कि सभी किरदारों के नए और पुराने दिनों में कम से कम 20 सालों का अंतर तो रहा ही होगा (अरे, मुख्य किरदार का बेटा 12वीं कर चुका है) इसलिए जहाँ सारे मेल करैक्टर खिलते चमन से उजड़े चमन (गंजे) हो गए थे वहीँ श्रद्धा कपूर की उम्र में कपड़ों के अलावा कोई फर्क नहीं पड़ा था।पिछले दिनों के faceapp की नौटंकी में कोई किसी को एक भी लड़की याद है जिसने अपने बुढ़ापे की पिक डाली हो?? कोई नहीं ना। exactly !!
लगता है, स्क्रिप्ट लिखते वक़्त डायरेक्टर ने कई मूवीज चला के रखी थीं, इसलिए 3 इडियट्स से शुरू होकर मूवी जल्द ही स्टूडेंट ऑफ़ द ईयर-2 हो जाती है और अंत में मुन्ना भाई MBBS के आनंद भाई की स्टाइल में कहानी खत्म करती है। कॉलेज लाइफ पुराने दिनों में ले जाती है और काफी हद तक relatable है। (स्टेट लेवल कॉलेज भी अच्छे होते हैं बॉस)। काफी फनी सीन्स हैं और मोस्टली द्विअर्थी डायलॉग हैं। कॉलेज लाइफ चलती है मज़ा आता है (असल में भी और फिल्म में भी)। किरदारों के ओल्डर वर्शन पे कम मेहनत की गई है और वो अलग से दिखता है, उनके किरदार अधूरे अधूरे से ही रहते है।
इस फिल्म की मेन थीम और सन्देश के हिसाब से इस फिल्म को बाप-बेटे को साथ में देखनी चाहिए, पर फिल्म के डायलॉग इसकी इज़ाज़त नहीं देते। तो मेरे हिसाब से अगर मेन थीम डिप्रेशन की समस्या है तो उसमें डायरेक्टर ‘लूज़र’ साबित हुए हैं। फ़िल्म की गंभीरता इसके ‘लास्ट डायलॉग’ से पता चलती है, जिसे दर्शक साथ लेके घर जाते हैं। हाँ फन कोसेंट के फिल्म अच्छी है।
फिल्म एक बार देखने लायक है (पर दोस्तों के साथ)
रेटिंग: 3. 5 आउट ऑफ़ 5