दिसम्बर

मुझे याद हो तुम जाते हुए
और इस तरह जाते हुए की
मुड़ने की ज़हमत नही की गई।

एक बार तो देखना बनता था ना
मुझे पत्थर बनते हुए।

मैं आज भी सोचता हूँ तुमने पलटकर क्यूँ नही देखा
जबकि तुमने बस अजनबी होने का सोचा था
हुए नही थे।
वैसे एक बार यानी आखिरी बार मुड़ना
जाने वाली की रस्म होती है।

आख़िरकार बिछड़ने का भी कुछ सलीका होता है!

प्रेमी गले मिलकर बिछड़ते है
दोस्त भारी मन से
शहर तो आँखों-आँखों में पीछे छूट जाता है
अजनबी भी बिछड़ते हुए मुस्कान छोड़ जाते हैं।

मुझे याद है दिसम्बर जाता हुआ
तुम्हारे साथ जाता हुआ।

‘December’ A Hindi Poem by Neeraj Neer

Share
Pin
Tweet
Related

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,

Comments

What do you think?

instagram: