मुझे याद हो तुम जाते हुए
और इस तरह जाते हुए की
मुड़ने की ज़हमत नही की गई।
और इस तरह जाते हुए की
मुड़ने की ज़हमत नही की गई।
एक बार तो देखना बनता था ना
मुझे पत्थर बनते हुए।
मैं आज भी सोचता हूँ तुमने पलटकर क्यूँ नही देखा
जबकि तुमने बस अजनबी होने का सोचा था
हुए नही थे।
वैसे एक बार यानी आखिरी बार मुड़ना
जाने वाली की रस्म होती है।
आख़िरकार बिछड़ने का भी कुछ सलीका होता है!
प्रेमी गले मिलकर बिछड़ते है
दोस्त भारी मन से
शहर तो आँखों-आँखों में पीछे छूट जाता है
अजनबी भी बिछड़ते हुए मुस्कान छोड़ जाते हैं।
मुझे याद है दिसम्बर जाता हुआ
तुम्हारे साथ जाता हुआ।
‘December’ A Hindi Poem by Neeraj Neer