छोटे, बड़े, बहुत बड़े शहरों की बहस के बीच मुझे हमेशा यही लगता है कि मेरा शहर मेरे साथ बड़ा होता रहा है। ज्यों-ज्यों मेरी उम्र बढ़ी, उसका दायरा बढ़ता गया।
हम अपने शहर को चारों ओर से नापते हैं, और ऐसा उम्र के हर पड़ाव में होता है। हर पड़ाव में हम एक ज़द तय करते हैं और उस ज़द से बाहर आ जाना, शहर से बाहर आ जाना मान लिया जाता है। हम शहर से कितने दूर हैं, यह इसी निश्चित ज़द के अनुसार तय किया जाता है। मज़े की बात यह है कि यह निश्चित ज़द असल में अनिश्चित होती है, क्योंकि यह उम्र के साथ बढ़ती चली जाती है। वह चौक जिसे पार कर जाने पर शहर खत्म हो जाता था, एक वक्त के बाद शहर में आ जाता है। और वह रोड जिसके छोर पर एक चाय की टपरी होती है, को शहर का सुदूर कोना मान लिया जाता है। एक समय बाद वह कोना भी शहर के भीतर ही है – मालूम हो जाता है और फिर हम एक और नई लिमिट तैयार करते हैं, एक नई बाउंडरी, जिसके बाहर चले जाने, शहर से बाहर चले जाना है।
अरुण और अद्वेत। मेरे स्कूली दोस्त, मेरे साथ बड़े हुए हैं। अर्थात वे भी शहर के दायरे के साथ-साथ बढ़ते गए हैं। पिछले कई सालों से हमेशा जब भी मैं अपने शहर में होता हूँ – अरुण अपनी गाड़ी ले आता है, मेरे घर के सामने। और फिर हम अद्वेत को लाद कर निकल पड़ते – शहर नापने।
रोड जिसके छोर पर एक बहती नहर थी, चाय की टपरी थी, और जहां अब चाय की टपरियां हैं, हमारी फेवरेट है। छोर तक पहुंचने के लिए हम इस रोड से होकर गुज़रते, लिंक रोड से। रोड की शुरुआत में हम तीनों कोई गीत गाना शुरू करते और अंत आते-आते हम देखते कि सिर्फ़ अद्वेत उसे गा रहा है। अद्वेत गाने का शौकीन है और उसने हमेशा हमारी प्लेलिस्ट में नए गाने जुड़वाए हैं। मैंने उसे यह कभी नहीं बताया कि मैं रोड की शुरुआत में कोई भी गाना(उसका पसंदीदा) सिर्फ इसलिए ऐड़ाना शुरू कर देता ताकि वह उसे गाना शुरू करदे। एक वक्त के बाद ना उसे पता चलता कि हम रुक गए हैं और ना हमें भनक लगती कि वह अब तक गा रहा है। यह तो रोड का अंत है, जो हमें हर बार इस बात का एहसास करवाता है। “उस रोड पर क्या मिलता है तुम्हें?” हमसे अक्सर लोग पूछते हैं। “क्या बात करते रहते हो रास्ते भर?” यह भी। हमने इन सवालों को हमेशा टाला क्योंकि असल में उस रोड पर वाक़ई हमें कुछ नहीं मिलता और बात हम करते नहीं। हम तो गीत गाते हैं। और फिर एक समय के बाद सुनते हैं बस अद्वेत को, गाते हुए। उसके स्वरों को, गहरा होते हुए। हम सुनते हैं। “हम” में अरुण भी है – जो अभी भी मुझे विश्वास है, किसी का सारथी बना हुआ है। किसी की गाड़ी चला रहा है, किसी की मदद कर रहा है।
हम लिंक रोड के उस छोर से, हमारे ही बनाए उस दायरे से आगे कई बार जा चुके हैं। लेकिन आज भी वही शहर का कोना मालूम होता है। शायद इसलिए क्योंकि हम वहाँ ठहरते हैं? ठहर जाना, पड़ाव डाल देना है। वह एक निशानी है – कि हम यहाँ तक आ चुके हैं। और इससे आगे फिर कभी जाएँगे।
हम शहर को जितना घूमते हैं, जितना खोदते हैं, जितना जानते हैं, उसे उतना गहरा और गूढ़ करते चले जाते हैं। मित्रता का रसायन भी ऐसा ही है।
अरुण, अद्वेत और मैं आज भी उस छोर तक जाते हैं – और लौट आते हैं। लौटकर मैं अपने कमरे में यात्रा को सोचता हूँ,(हर रोज़) और उसी रोड के कोने पर पहुंच जाता हूँ, ठीक नहर के सामने। नहर को जितना देखता हूँ, बहते पानी की आवाज़ को जितना सुनता हूँ, नहर उतनी गहरी होती चली जाती है। ठीक अद्वेत के गाने के स्वरों की तरह।
यह सोचते हुए दिमाग में एक सफ़ेद स्क्रीन पर मैं तीनों को देखता हूँ – प्रद्युम्न, अरुण और अद्वेत, लिंक रोड पर बाइक की सवारी करते हुए। अरुण गाड़ी चला रहा है, अद्वेत गीत गा रहा है। और प्रद्युम्न टाइप कर रहा है, मोबाइल में। वह लिख रहा है –
“मैं, मेरा शहर और मेरे दोस्तों से मेरी दोस्ती साथ-साथ बढ़ी हैं। जैसे-जैसे हमने अपने शहर का दायरा बढ़ाया, वैसे-वैसे हमारी दोस्ती गहन और गहरी होती चली गई – छोटे, बड़े, बहुत बड़े शहरों की बहस के बीच मुझे हमेशा यही लगता है।”