इसमें कोई दो राय नहीं कि मार्टिन जॉन हिन्दी के सिद्धहस्त लघुकथाकार हैं। उन्होंने सूक्ष्म पर्यवेक्षण, दृष्टि के विस्तार, विषय वस्तु के सटीक चयन, कथ्य के कसाव, भाषा की किफायतसारी और निरन्तर शैल्पिक अभ्यास की बदौलत यह क्षमता अर्जित की है। ज़िन्दगी बहुत बड़ी होती है, उसमें उतार-चढ़ाव, उबड़-खाबड़पन के साथ-साथ नितान्त सपाटता भी होती है। उसे अविकल रूप में किसी एक रचना-विधा में हू-ब-हू उकेर पाना रचनाकारों के लिए हमेशा से चुनौतीपूर्ण रहा है। आधुनिक जीवन को कुछ हद तक हर रंग में उतार पाना उपन्यास विधा में तो सम्भव होता है, लेकिन कहानी में इसकी सम्भावना कमतर होती है, जबकि लघुकथा में तो और भी कम होती है।
सुखद आश्चर्य है कि मार्टिन जॉन के पिछले संग्रह ‘सब ख़ैरियत है’ और इस संग्रह की लघुकथाओं से गुज़रने के बाद यही एहसास होता है कि वह ज़िन्दगी के एक बड़े अंश को नितान्त छोटे-से कैनवास पर भी उतार पाने में दक्ष हैं। अक्सर हम सुनते हैं, दाल या चावल के दाने पर ‘गीता’ अथवा ‘बाइबल’ को उकेर देनेवाले कलाकारों के बारे में, लेकिन वहाँ सिर्फ कारीगरी होती है, कोई सृजनात्मकता नहीं। मार्टिन जॉन के यहाँ इस बारीक़ कारीगरी के साथ इतनी गहरी सृजनात्मकता और कुशल कलात्मकता है कि हम इनकी लघुकथाओं के असर में देर तक बने रहते हैं। वर्तमान व्यवस्था और उसके अन्तर्विरोधों को समझने में किसी छोटी-सी कुंजी की भूमिका अदा करनेवाली ये लघुकथाएँ हमारी चेतना में लम्बे समय तक हलचल मचाये रखती हैं।
‘रोटी चोरवा’, ‘रेप वन्स अगेन’, ‘सैनेटरी पैड’, ‘मार्किट पॉलिसी’, ‘शोर बाई दि टेम्पुल’, ‘वायरल वीडियो का सच’, ‘डिलीट होते रिश्ते’, ‘रेप विक्टिम’, ‘डिजिटल स्लेव’ आदि ऐसी ही लघुकथाएँ हैं, जिन्हें पढ़कर हम भौंचक रह जाते हैं कि तमाम प्रगतिशीलता, आधुनिकता, सूचनासम्पन्नता और उन्नत तकनीक के सहारे कथित रूप से सुख-सुविधापूर्ण जीवनयापन करनेवाले हम मनुष्य अपनी ही अन्दरूनी सच्चाई से कितने अनजान हैं।
इच्छा तो होती है कि मार्टिन जॉन की कतिपय चुनिंदा लघुकथाओं की कुछ परतें खोलूँ, लेकिन ऐसा करना सुधी पाठकों के अपने प्रथम पाठ से उपजनेवाली स्वानुभूति और प्रसन्नता पर अतिक्रमण होगा, अतएव इसे इस संग्रह के भावी पाठकों पर छोड़ देना ही श्रेयस्कर होगा कि वे इनकी सृजनात्मक शक्ति, स्तरीयता और कलात्मक आनन्द से स्वयं दो-चार हो सकें।
– सृंजय
(कथाकार)