जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे – रामधारी सिंह ‘दिनकर’


Notice: Trying to access array offset on value of type bool in /home/u883453746/domains/hindagi.com/public_html/wp-content/plugins/elementor-pro/modules/dynamic-tags/tags/post-featured-image.php on line 36
वैराग्य छोड़ बाँहों की विभा सम्भालो,
चट्टानों की छाती से दूध निकालो,
है रुकी जहाँ भी धार, शिलाएँ तोड़ो,
पीयूष चन्द्रमाओं का पकड़ निचोड़ो ।

चढ़ तुँग शैल शिखरों पर सोम पियो रे !
योगियों नहीं विजयी के सदृश जियो रे !

जब कुपित काल धीरता त्याग जलता है,
चिनगी बन फूलों का पराग जलता है,
सौन्दर्य बोध बन नई आग जलता है,
ऊँचा उठकर कामार्त्त राग जलता है ।

अम्बर पर अपनी विभा प्रबुद्ध करो रे !
गरजे कृशानु तब कँचन शुद्ध करो रे !

जिनकी बाँहें बलमयी ललाट अरुण है,
भामिनी वही तरुणी, नर वही तरुण है,
है वही प्रेम जिसकी तरँग उच्छल है,
वारुणी धार में मिश्रित जहाँ गरल है ।

उद्दाम प्रीति बलिदान बीज बोती है,
तलवार प्रेम से और तेज होती है !

छोड़ो मत अपनी आन, सीस कट जाए,
मत झुको अनय पर भले व्योम फट जाए,
दो बार नहीं यमराज कण्ठ धरता है,
मरता है जो एक ही बार मरता है ।

तुम स्वयं मृत्यु के मुख पर चरण धरो रे !
जीना हो तो मरने से नहीं डरो रे !

स्वातन्त्रय जाति की लगन व्यक्ति की धुन है,
बाहरी वस्तु यह नहीं भीतरी गुण है !
वीरत्व छोड़ पर का मत चरण गहो रे
जो पड़े आन खुद ही सब आग सहो रे!

जब कभी अहम पर नियति चोट देती है,
कुछ चीज़ अहम से बड़ी जन्म लेती है,
नर पर जब भी भीषण विपत्ति आती है,
वह उसे और दुर्धुर्ष बना जाती है ।

चोटें खाकर बिफरो, कुछ अधिक तनो रे !
धधको स्फुलिंग में बढ़ अंगार बनो रे !

उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है,
सुख नहीं धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है,
विज्ञान ज्ञान बल नहीं, न तो चिन्तन है,
जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है ।

सबसे स्वतन्त्र रस जो भी अनघ पिएगा !
पूरा जीवन केवल वह वीर जिएगा !

Related

दिल्ली

रेलगाड़ी पहुँच चुकी है गंतव्य पर। अप्रत्याशित ट्रैजेडी के साथ खत्म हो चुका है उपन्यास बहुत सारे अपरिचित चेहरे बहुत सारे शोरों में एक शोर एक बहुप्रतिक्षित कदमताल करता वह

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: