जो नहीं होते धरती पर


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जो नहीं होते धरती पर
अन्न उगाने पत्थर तोड़ने वाले अपने
तुम मेरी क्या बिसात जो मैं बन जाता आदमी
आखेट और खेतीबाड़ी करते पुरखों ने
जो आग के भीतर नहीं पकाई होती अपनी ज़ुबान
तो वे नहीं दे पाते चीज़ों को एक के बाद एक उनकी पहचान
असंख्य चीज़ें धरती पर, गर्भ में, आकाश
और पानी की अतल गहराइयों में
अपने ही पुरखों ने चस्पा किए असंख्य चीज़ों के
कई गुने एक ही चीज के कई नाम

उनने जो नहीं होते पहचाने पहाड़
किया होता नहीं जो मिट्टी का नामकरण संस्कार
तो होते कैसे कहां कबीर ग़ालिब तुलसी अपने
जिनके बिना होता मैं गूंगा पत्थर एक बदनसीब

मेरा घर बना जो अनगिन शब्दों से
शब्दों के सत की नींव पर ही तो टिका खड़ा
समुद्र भी ढ़ाई आखर का प्रवेश करता है आंखों से
जगमग अपने मोतियों से
चमकता है घर के भी भीतर वाले
घर का कोना कोना
नहीं होता जगमग
यह सब कुछ भी नहीं होता
जो धरती पर नहीं नाचती अपनी दरद दीवानी मीरा
पर कैसे गाती
तन्मय इतनी कैसे होती मीरा
जो नहीं होते धरती पर
पत्थर तोड़ने अन्न उगाने वाले अपने

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