नव आधुनिकतावाद
अगर एक शब्द में इस पुस्तक की समीक्षा करूं तो पर्याप्त है।
यहां तर्क, विचार, राय, तथ्य तभी तक महत्वपूर्ण होते हैं जब वो स्वयं के द्वारा रखे जाएं। उपरोक्त सभी चीजें दूसरे के संदर्भ में अप्रमाणिक हैं। मतलब ये हुआ कि दूसरे की सोच हमेशा खराब है जब तक वो हमारी सोच से नहीं मिलती है। पुस्तक ‘नारीवाद से’ और ‘नारीवाद के’ कठिन सवाल सामने रखती है। सरनेम के पूरे प्रसंग में नारीवाद के तीखे सवाल दिखते हैं और आत्मनिर्भरता की खोज में अकेलापन तक के सफर में नारीवाद से स्पष्ट प्रश्न दिखते है। यहां व्यक्तिवाद अपने चरम पर पहुंच जाता है और प्रामाणिकता केवल स्वयं के अनुभव मात्र रह जाते हैं जो निश्चित रूप से पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो सकते हैं।
पुस्तक में मुख्य चरित्र का अपने प्रेमी से अलग होने के समय यहाँ व्यक्तिवाद का चरम दिखाई देता है।
लेखिका साधना जैन अपने मुख्य चरित्र का निर्माण करते हुए उस में इतनी आत्म मुग्धता भर देती हैं कि उनके हाथ से एक समय पर मुख्य चरित्र छूटने लगती है। इसी डर में लेखिका को एक बच्चे की हत्या तक करनी पड़ती है।
प्लॉट नया नहीं दिखता है। यहां भी अधिकांश नारीवादी उपन्यासों की तरह नायिका बॉलीवुड की कलाकार है (पता नहीं बॉलीवुड ही नारीवाद का ड्रीम जॉब क्यों है?)। संभवतः सभी लेखक नायिका का व्यापक संघर्ष दिखाने के लिए यह चरित्र चुनते हैं लेकिन यहां नायिका को सब सहजता से मिलता है इसलिए बॉलीवुड को चुनने का कारण संघर्ष को दिखाना नहीं है। संभवतः कहानी पर्यंत दिखने वाले नायिका के तनाव और अकेलेपन को दिखाने के लिए बॉलीवुड को चुना गया है।
प्रारंभ के कुछ पन्नों में ही आप उस तनाव को महसूस करने लगते हैं और माथे में बल पड़ जाते हैं जो आखिरी पेज तक बने रहते हैं। यही उपन्यास की सबसे बड़ी बात है क्योंकि यह अपने मूल भाव को पाठक तक पहुंचाने में पूरी तरह सफल है। इसके लिए लेखिका मुख्य रूप से दो तकनीक का प्रयोग करती हैं। पहली तकनीक व्यतिरोपण है जिसमें लेखिका दूसरों की सभी फीलिंग को असत्य बताने की कोशिश करती हैं ताकि खुद की फीलिंग स्वयमेव सत्य और प्रामाणिक हो जाए। दूसरी तकनीक नव आधुनिकतावाद के बारे में हम चर्चा कर चुके हैं जहां अपनी कही हुई हर एक बात प्रामाणिक है इसलिए लेखिका के चरित्र का अकेलापन भी प्रामाणिक है। लेकिन दोनों ही तकनीक स्वाभाविक रूप से आ गई हैं लेखिका का कोई इरादा नहीं दिखाई देता है इसलिए ये कहानी और भी अधिक प्रमाणिक लगने लगती है। कुछ हिस्सों में यह सयास ना भी लगे तो जबरजस्ती अकेलेपन को ओढ़ लेना तनाव को मानसिक बीमारी जैसा दिखाने लगता है। जैसे नायिका द्वारा अपने फिल्मी कैरियर को छोड़ देना।
ऐसा लगता है कि सुरेंद्र वर्मा जी के उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए‘ को recreate करने की कोशिश की गई है लेकिन दोनों में कई बुनियादी अंतर हैं जो ‘जूह चौपाटी’ को नया बनाते हैं। जिसमें से एक अंतर कहानी का मर्डर मिस्ट्री के रूप में आगे बढ़ना और फ्लैशबैक में आत्मकथा रूप में कहानी को कहना है जो पाठक को कई गुना अधिक बांध कर रखने में सक्षम है। ज्यादा प्लॉट रिवील नहीं किया जा सकता है लेकिन अगर आप क्राइम फिक्शन पढ़ते हैं तो आप शुरू में ही कातिल को पकड़ सकते हैं।
‘मुझे चांद चाहिए‘ जहां संघर्ष को केंद्र में रखकर लिखा गया है वहीं ‘जुहू चौपाटी‘ तनाव और अकेलेपन को केंद्र में रखता है इसलिए चाहते ना चाहते हुए भी एक समीकरण बार बार बनता दिखाई देता है –
जुहू चौपाटी = मुझे चांद चाहिए + सुशांत सिंह राजपूत + कंगना रनौत
‘मुझे चांद चाहिए‘ के प्रभाव को लेखिका ने स्वयं स्वीकार किया है लेकिन एक और बड़ा अंतर ध्यान देने योग्य है। जहां ‘मुझे चांद चाहिए’ को पढ़ते हुए पता चलता है की लेखक ने बहुत से नाटक देखे या पढ़े हैं वहीं ‘जुहू चौपाटी‘ पढ़ते हुए पता चलता है कि लेखिका की रुचि का बड़ा हिस्सा इतिहास और दर्शन भी है। हालांकि इतिहास के उद्धरणों का औचित्य समझ नहीं आता है लेकिन वो सुरेंद्र वर्मा के ‘मुझे चांद चाहिए‘ में नाटकों के बेहिसाब संदर्भों की तरह सामान्य पाठक को खटकते भी नहीं हैं बल्कि कहानी को गति देते हैं।
लेखिका की दर्शन की पकड़ और परिस्थिति से मुक्त मस्तिष्क दो प्रसंगों में दिखता है। पहला चौपाटी का पिकनिक और दूसरा बुद्ध व ओशो का अध्ययन। चौपाटी में वह लोगों के मनोरंजन, यादें और खुशी जैसे भावों को भी उपभोक्तावाद और ट्रेंड से संचालित होते हुए देख सकती हैं वहीं दूसरी ओर ‘बुद्ध को दूसरों की मानसिक गुलामी से निकालकर अपना मानसिक गुलाम बनाते हुए’ वह स्पष्ट रूप से देखती हैं। बुद्ध और ओशो पर ऐसा बौद्धिक हमला पर्याप्त साहसी कदम है।
पुस्तक की भाषा ग्राह्य और सरल है जो हिंदी के नए पाठकों के लिए भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं करेगी। अगर कोई हिंदी पढ़ना स्टार्ट करना चाहता है तो यह एक अच्छी शुरुआत है।
संवाद के स्तर पर बहुत ज्यादा करने के लिए लेखिका के पास नहीं था क्योंकि यह आत्मकथा रूप में में लिखा गया है। इसलिए अधिकतर जगह लंबे मोनोलॉग जैसे दिखे हैं लेकिन जहां फ्लैशबैक में कहानी चलती हैं वहां संवाद हैं और वो कहानी को बहुत अच्छे तरीके से आगे बढ़ाते हैं। कई जगह अंग्रेजी में संवाद हैं जो आधुनिक उच्च वर्ग की भाषायी अभिजात्यता को दिखाते हैं।
कहानी में कसा हुआ कथानक और उस पर सस्पेंस क्राइम थ्रिलर, इस 171 पेज के उपन्यास को एक बार में पढ़ जाने के लिए उत्सुक करता है और यकीन मानिए आप ये कर सकते हैं। और फिर अंत में बचते हैं कुछ सवाल जो लंबे समय तक पूछे जाएंगे –
- स्वतंत्र होने और अकेले होने में कितना अंतर है?
- क्या आत्महत्या कायरता है?
- क्या एक पिता होने का अर्थ इतना ही है कि, “मैं उसको बच्चे से मिलने से मना नहीं करूंगी।”
Sadhna Jains’s Book ‘Juhu Chaupati’ – Reviewed by Aarushi
किताब: जुहू चौपाटी लेखिका: साधना जैन पब्लिशर: हिंद युग्म पृष्ठ संख्या: 171 मूल्य: 150/- |