मी रकसम


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जहाँ एक तरफ इस वक्त नेटफ़्लिक्स, हॉटस्टार, प्राइम विडिओ आदि का OTT वार चल रहा है, और सभी बड़े बड़े डिरेक्टर्ज़, सिलेब्रिटीज़ को अपनी ओर खींचने की होड़ में लगे हैं, वहीं ज़ी5 कुछ अलग ही रचने मे लगा है। जी5 कम बजट, अच्छी कहानियों और नए (और अच्छे) कलाकारों के साथ अच्छी, सीधी सादी, पुरसुकून और बेहतरीन फ़िल्में दे रहा है। चाहे वो चिंटू का बर्थडे हो, परीक्षा हो या मी रक़सम

कहानी-फिल्म की शुरुआत मरियम और उसकी अम्मी की घर की छत पर भरतनाट्यम करते हुए होती है जहाँ नाचते हुए ही अम्मी गिर जाती और उनकी मृत्यु हो जाती है और भरतनाट्यम का जुनून लिए रह जाती है मरियम। मरियम के अब्बू सलीम मियां, जो कि पेशे से दर्जी हैं अपनी बेटी के इस ग़ैर मज़हबी डान्स के इस सपने के लिए अपनी क़ौम और अपने परिवार से लड़कर पूरा करने के लिए उसके साथ खड़े हैं।

फ़िल्म के संवाद जानदार हैं। शांति से, बिना हो-हल्ले के इत्मिनान से कहे गए हैं और असर करते है। जैसे जब मरियम अपने अब्बू की मुसीबतें देख के डान्स छोड़ने की बात करती है तब अब्बू सलीम कहते हैं बात डांस की नहीं, अपनी शर्तों पे जीने की है या फिर जब उन्हें उनकी कौन के मौलाना और प्रभावशाली लोग मस्जिद में घुसने से रोकते हुए कहते हैं अल्लाह, ऐसे लोगों की दुआएं कुबूल नहीं करता? तो सलीम कहते हैं क्यों न ये फैसला हम अल्लाह पर ही छोड़ दें। आप मुझसे मेरी मस्जिद छुड़वा सकते हैं, मेरा अल्लाह नहीं  और भी बहुत सारे संवाद जो पिता पुत्री बीच हैं जो उनकी बांडिंग दर्शाते हैं, काफ़ी प्यारे हैं।

ऐक्टिंग- दानिश हुसैन साहब जिन्होंने मरियम (अदिति सूबेदी) के अब्बू का रोल किया है, पूरी फिल्म में छाए रहे हैं, ये फिल्म उन्ही की है। मरियम के रोल में अदिति की ऐक्टिंग अच्छी है। नसीर साहब इसमें मेहमान भूमिका है, पर जितने भी दृश्यों में हैं शानदार है। बाकी सहायक भूमिकाओं में फारुख जाफ़र (गुलाबो सिताबो वाली मेन कैरिक्टर, हवेली की बूढ़ी मालकिन) और श्रद्धा कौल मरियम की ठेठ और टिपिकल मुस्लिम नानी और खाला के रोल में जमे हैं। सुदीप्ता सिंह ने मरियम की डान्स टीचर के रोल में बखूबी साथ निभाया है।

तकनीकी पक्ष- फिल्म की पूरी शूटिंग कैफ़ी आजमी साहब के गाँव मिजवाँ,आज़मगढ़ मे हुईं है। और जिस मुद्दे पे फिल्म है, उसपे एकदम मुफीद जान पड़ती है जहाँ समय के साथ आगे बढ़ने की चाह भी है और रूढ़िवादिता का ठहराव भी। फ़िल्म की सिनमटॉग्रफ़ी औसत है हालाँकि तकनीकी तौर पर भी उन्नत नहीं है। फ़िल्म लो बजट है और दिखती भी है। कुछ कच्चापन भी है, कहानी एकदम सीधी सी, सपाट सी है। कैरिक्टर एकदम ब्लैक एंड वाइट टाइप हैं। इन सब के बावजूद एक ईमानदार कोशिश है, तो गलतियाँ नजरंदाज करी जा सकतीं है। और सब कुछ जानते हुए भी क्या होने वाला है हम आगे देखना चाहते हैं, यही फिल्म की सफलता है।

संगीत- संगीत साधारण है, एक दो गाने हैं जो किसी नए सिंगर ने गाए हैं। भरतनाट्यम के बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं, पर देख के अच्छा लग रहा है। अंत में सूफी और भरतनाट्यम का संगम काफ़ी सही बना है।

फ़िल्म बहुत ही सरल, सेन्सिटिव और सीधी सादी सी है जो बहुत प्यार से बिना भारी भारी डाइयलॉग्ज़ के डान्स के माध्यम से समाज में घुलती हुई धार्मिक संकीर्णता, असहिष्णुता और घुटते सपनों के बीच गंगा-जमुनी तहज़ीब, सौहार्द और आशा की बात करती है।

एक सुकून भरी, हैपी एंडिंग फ़ील गुड टाइप मूवी देखना चाहते हों तो इसे देख सकते हैं।

रेटिंग 3.5 आउट ऑफ 5

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