अमृता प्रीतम की आत्मकथा : रसीदी टिकट

मेरी सारी रचनाएँ, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूँ, एक नाजायज बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हकीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क़ किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएँ पैदा हुईं। जानती हूँ, एक नाजायज बच्चे की किस्मत इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं।

मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है। यह कम्बख्त बहुत हसीन होगा, निजी जिन्दगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हकीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएँ पैदा हुईं, हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं।

यह है अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ का एक अंश, जो उनके शब्दों में उनकी समूची जीवनी का सार है। वे जानती थीं कि उनके मुक्त व स्वतन्त्र व्यक्तित्व को पुरातनपंथी समाज पचा नहीं सकेगा, लेकिन फिर भी उन्होने स्वयं को बांधना स्वीकार नहीं किया। एक पूरा विद्रोही जीवन जिया और स्याही में कलम डुबोकर बदलाव की इबारत रची। शताब्दियों तक उनका जीवन दूसरों, विशेष कर स्त्रियों को आजादी की उड़ान भरने की प्रेरणा देता रहेगा।

हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं – एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा – जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण। अमृता प्रीतम भी जीवन के झंझावतों से जूझती रहीं। बचपन में सगाई और किशोरावस्था में विवाह के उपरान्त दो बच्चों की माँ बनीं, लेकिन पारिवारिक बंधन भी उन्हें अधिक समय तक रोक नहीं सके। उन्होने निजी समस्याओं को सिरे पर रख, कालजयी साहित्य रचा। प्रेम भी किया और साहसी हो स्वीकार भी किया।

अमृता के व्यक्तित्व में जो साहस था, सामाजिक वर्जनाओं के विरुद्ध जो विद्रोही भावना थी, वह बचपन के दिनों से ही उपजने लगी थीं। जैसा वे स्वयं लिखती हैं

सबसे पहला विद्रोह मैने नानी के राज में किया था। देखा करती थी कि रसोई की एक परछत्ती पर तीन गिलास, अन्य बर्तनों से हटाए हुए, सदा एक कोने में पड़े रहते थे। ये गिलास सिर्फ तब परछत्ती से उतारे जाते थे, जब पिताजी के मुस्लिम दोस्त आते थे और उन्हें चाय या लस्सी पिलानी होती थी और उसके बाद मांज – धोकर फिर वहीं रख दिए जाते थे।

उम्र के जिस पड़ाव पर दूसरी लड़कियां गुड़िया सजाने अथवा घर सम्भालने के गुर सीख रही होती थीं, अमृता के मन में कई प्रश्न उबलने लगे थे। जातियता और धर्म के नाम पर बने सामाजिक खांचे उन्हें उद्वेलित करने लगे थे। ग्यारह बरस की उम्र में अमृता ने ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर दिया। उन पर धार्मिक पिता का दबाव था, समाज की अपेक्षाएं थीं, लेकिन वे इन सबसे इतर हर रात, सामाजिक किलों से आजादी के सपने देखती। ऐसे ही एक सपने के बारे में वे लिखती हैं

एक सपना था कि एक बहुत बड़ा किला है और लोग मुझे उसमें बंद कर देते हैं। बाहर पहरा होता है। भीतर कोई दरवाजा नहीं मिलता। मैं किले की दीवारो को उँगलियों से टटोलती रहती हूँ, पर पत्थर की दीवारों का कोई हिस्सा भी नहीं पिघलता। सारा किला टटोल – टटोल कर जब कोई दरवाजा नहीं मिलता, तो मैं सारा जोर लगाकर उड़ने की कोशिश करने लगती हूँ।

मेरी बाँहों का इतना जोर लगता है कि मेरी साँस चढ़ जाती है। फिर मैं देखती हूं कि मेरे पैर धरती से ऊपर उठने लगते हैं। मैं ऊपर होती जाती हूं, और ऊपर, और फिर किले की दीवार से भी ऊपर हो जाती हूं। सामने आसमान आ जाता है। ऊपर से मैं नीचे निगाह डालती हूं। किले का पहरा देने वाले घबराए हुए हैं, गुस्से में बांहें फैलाए हुए, पर मुझ तक किसी का हाथ नहीं पहुंचता।

अमृता ने धार्मिक और जातीय बंधनों के विरोध में कई रचनाएं गढ़ीं, जिसके कारण तत्कालीन सिख समाज उनकी मुखालफत करने लगा। देश के विभाजन के उपरान्त लिखी गई एक कविता ने अमृता को प्रशंसा भी दिलाई, साथ ही कुछ समुदायों ने उन्हें प्रश्नों के घेरे में भी खड़ा कर दिया।

आज वारिस शाह से कहती हूं, अपनी कब्र में से बोलो

और इश्क़ की किताब का कोई नया पृष्ठ खोलो

ऐ दर्दमंदों के दोस्त! अपने पंजाब को देखो

वन लाशों से अटे पड़े हैं, चिनाव लहू से भर गया है।

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अमृता ने कई सामाजिक मंचों और सम्मेलनों में खुलकर एक धर्म मुक्त समाज बनाने जैसी बातें कहीं। तथाकथित धार्मिक मठाधीशों की ओर से उनका विरोध होना स्वाभाविक था। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि भीरू समाज को ऐसे साहसी व विद्रोही स्वर कभी रास नहीं आए। उन्हें चुप करने की कवायदें जोर मारती रहीं। लेकिन क्या उन्हें चुप किया जा सकता है? नहीं, कभी नहीं।

अमृता ने विश्व के कई देशों और सभ्यताओं के साहित्यकारों के बीच, अपनी विद्रोही रचनाएं पढ़ी और प्रशंसा बटोरी। उन्होने दूसरे विद्रोही कवियों – लेखकों को भी भरपूर सुना और समझा। विश्व का कोई भी कोना ऐसा नहीं है, जहां कोई सामाजिक भेद नहीं हो। हर हिस्से की अपनी समस्या है और ऐसे में ‘ककनूसी’ नस्ल के साहित्यकार कागजों पर विद्रोह रचते रहे हैं। कलम से युद्ध लड़ते रहे। अमृता लिखती हैं

मनुष्यों की जिस नस्ल ने हर विनाश में से गुजर सकने की अपनी शक्ति को पहचाना,अपना नाम जल मरने वाले और अपनी राख में से फिर पैदा हो उठने वाले ककनूस से जोड़ दिया।

प्रेम प्राथमिक क्रांति है। स्वतन्त्र व्यक्ति ही सच्चा प्रेम कर सकता है। साहिर से उनका प्रेम खामोशियों के इर्द – गिर्द पनपता रहा। जुबां ने मशक्कत नहीं की, लेकिन मन सब कुछ जानता था। साहिर के बारे में, अमृता कुछ यूँ लिखती हैं

वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधी सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नई सिगरेट सुलगा लेता था और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े-बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे।

कभी… एक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी। उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को सम्भाल कर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक-एक टुकड़े को अकेले बैठकर जलाती थी। और जब अंगुलियों के बीच पकड़ती थी, तो लगता था, जैसे उसका हाथ छू रही हूँ।

जिससे एक मर्तबा प्रेम हो जाए, फिर जीवन भर नहीं छूटता। अतीत की स्मृतियों से वह कभी रिक्त नहीं होता। प्रेम की मृत्यु हमारी आंशिक मृत्यु है। हर बार प्रेम के मरने पर हमारा एक हिस्सा भी हमेशा के लिए मर जाता है। जब साहिर की मृत्यु हुई, तो अमृता ने लिखा

सोच रही हूँ, हवा कोई भी फासला तय कर सकती है, वह आगे भी शहरों का फासला तय किया करती थी। अब इस दुनिया और उस दुनिया का फासला भी जरूर तय कर लेगी…

अमृता प्रेम में रहीं और मुक्त भी रहीं। सच्चा प्रेम कभी बाँधता नहीं है। वे प्रेम में और स्वतन्त्र होती गईं। जब उन्हें इमरोज से इश्क हुआ, तो कई बरस उनके साथ रही। जीवन की धूप-छांव में दोनों एक दूसरे का हाथ थामे रहे। एक दूसरे पर कुछ थोपे बिना, सदा साथ बने रहे।

रसीदी टिकट का हर पन्ना बयां करता है कि कैसे अमृता ने एक स्त्री होते हुए, बन्धनों के बीच, बन्धनों का सशक्त विरोध किया। अन्याय और असमानताओं के खिलाफ लिखती-बोलती रहीं। एक स्त्री, एक माँ, एक प्रेमिका और एक लेखिका होने के बीच उलझतीं रही और निकलने को राह भी बनाती रहीं। उनके लिए, जीवन यथार्थ से यथार्थ तक पहुंचने का सफर रहा। यथार्थ को पाने का हासिल, आखिर कितनों का मकसद होता है और कितने उसे छू भर भी पाते हैं? अमृता जैसी साहसी लेखिका कागज पर काले अक्षरों से सुनहरा इतिहास लिख जाती हैं और हम पन्ने पलट-पलट कर उनकी छाया का महज अनुमान लगा सकते हैं। एक कभी न मिटने वाली छाया। तमाम उम्र वे कंकड़ों पर चलीं, लेकिन लौटी नहीं। अपने सपनों को जिया। पूरी बांहो का जोर लगा कर, सचमुच किले की नहीं पिघलने वाली दीवारों से बहुत ऊपर उठ गईं। धरती से ऊपर उठ, आसमां में उड़ान भरने लगी। किले पर पहरा देने वाले उन्हें यूँ उड़ता देख घबराए, गुस्से में बांहें फैलाए रहे, लेकिन फिर कोई हाथ उन तक पहुंच नहीं सकता था।

 

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