रिक्त स्थान


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एक पुरुष ने लिखा दुख
और यह दुनिया भर के वंचितों की आवाज़ बन गया
एक स्त्री ने लिखा दुःख
यह उसका दिया एक उलाहना था

एक पुरुष लिखता है सुख
वहाँ संसार भर की उम्मीद समायी होती है
एक स्त्री ने लिखा सुख
यह उसका निजी प्रलाप था

एक पुरुष ने लिखा प्रेम
रची गई एक नयी परिभाषा
एक स्त्री ने लिखा प्रेम
लोग उसके शयनकक्ष का भूगोल तलाशने लगे

एक पुरुष ने लिखी स्त्रियाँ
ये सब उसके लिए प्रेरणाएं थीं
एक स्त्री ने लिखा पुरुष
वह सीढियाँ बनाती थी

स्त्री ने जब भी कागज़ पर उकेरे कुछ शब्द
वे वहां उसकी देह की ज्यामितियां ख़ोजते रहे
उन्हें स्त्री से कविता नहीं चाहिए थी
वे बस कुछ रंगीन बिम्बों की तलाश में थे

भक्ति काल में मीरा लिख गयीं –

राणाजी म्हाने या बदनामी लगे मीठी।
कोई निन्दो कोई बिन्दो, मैं चलूंगी चाल अपूठी…

1930 में महादेवी के शब्द थे –

विस्तृत नभ का कोई कोना, मेरा न कभी अपना होना…

1990 में लिखती हैं अनामिका –

हे परमपिताओं,
परमपुरुषों–
बख्शो, बख्शो, अब हमें बख्शो!

2018 में यह पंक्तियाँ लिखते
मैं आपके लिए तहेदिल से चाहती हूँ
‘ग्रो अप
एन्ड मूव ऑन’

और आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए
20 …. लिख कर रिक्त स्थान छोड़ती हूँ
उम्मीद करती हूँ कि अब कोई नयी बात लिखी जाए!

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