मेरी कविता,
रुई-सा भार लिये,
तुम्हारे दरवाज़े तक पहुंचेगी।
लेकिन….
मेरी कविता के शब्दों में,
तेज़ धावकों-सी गति नहीं होगी,
जल्दी हो जिसे, मंज़िल तक पहुंचने की,
जिसे जीतना ही हो हमेशा;
मेरी कविता उस हारे इंसान की तरह होगी,
जो तुम्हारे दरवाज़े तक पहुंचगी,
ढूंढते हुए एक आख़िरी उम्मीद।
मेरी कविता होगी,
एक स्त्री के प्रेम की तरह,
जो न्यौछावर कर सर्वस्व
लौट आएगी तुम्हारे दरवाज़े से।
मेरी कविता होगी,
उस पुरुष की आँखों में रुके आंसू की भांति,
जो विवश है, लुढ़क नहीं सकता।
रुई-सा भार लिये,
तुम्हारे दरवाज़े तक पहुंचेगी।
लेकिन….
मेरी कविता के शब्दों में,
तेज़ धावकों-सी गति नहीं होगी,
जल्दी हो जिसे, मंज़िल तक पहुंचने की,
जिसे जीतना ही हो हमेशा;
मेरी कविता उस हारे इंसान की तरह होगी,
जो तुम्हारे दरवाज़े तक पहुंचगी,
ढूंढते हुए एक आख़िरी उम्मीद।
मेरी कविता होगी,
एक स्त्री के प्रेम की तरह,
जो न्यौछावर कर सर्वस्व
लौट आएगी तुम्हारे दरवाज़े से।
मेरी कविता होगी,
उस पुरुष की आँखों में रुके आंसू की भांति,
जो विवश है, लुढ़क नहीं सकता।
मेरी कविता…
पहुंचेगी तुम्हारे दरवाज़े पे,
लौट आने के लिए, जैसे
लौटता है कामगार थक कर अपने घर,
एक अदना नींद की आस में;
जैसे लौटते है पंछी, शाम को,
अपने घौंसले में,
एक नयी सुबह के इंतज़ार में;
जैसे लौटता है कोई अपना,
एक लम्बे इंतज़ार के बाद;
जैसे, लौटते है सूखे पत्ते,
अपनी जड़ो की और
टूटने के बाद…
जैसे सिक्के कुछ बचे हो, सब
खर्च कर देने के बाद।
मैं अपनी कविताओं में
दे सकूंगी, गुड़ की चासनी में डूबी
सिर्फ़ कुछ मीठी यादें।
मैं लिखूंगी…
अंतिम सत्य के झूठ से बचाकर,
थोड़ा थोड़ा सच।
खाली हाथ लौटा देना तुम,
मेरी उस कविता को, दरवाज़े
से ही तुम्हारे।
क्योकि….. ग़र
रुक गयी, तो लौट ना सकेगी,
कभी दरवाज़े पे तुम्हारे…..