सर्दी की इक सुबह
उग रही थी धूप जब धीरे-धीरे
मैं चढ़ रहा था पहाड़ पर
उग रही थी धूप जब धीरे-धीरे
मैं चढ़ रहा था पहाड़ पर
देख रहा था गिरती वादियों को
आसमान कुछ हरा था
लचक कर चल रही थी धरती पर
पानीदार नदी, इक
खेतों में उगी थी खुरदरे हाथों की नमी
चीड़ और देवदार में लगी थी होड़ अनंत को छूने की
दूर, देख पाने की सीमा के सबसे अंत में
लादे बोझ पीठ पर, चलती चली जा रही थी
बुढ़िया इक, पता नहीं किधर
बस, कुल जमा यही चार-पाँच दृश्य थे
सर्दी की इस जाती सुबह
अब भी ताज़ा और हरी है वो धूप
कि जैसे वो बुढ़िया पलटी है मेरी तरफ़
(क्या अब भी ठहरी होगी उस अकेले रास्ते पर)
चढ़ते-चढ़ते चला आया हूँ अब
मैदानों की ओर
यहाँ से अब
सब कुछ अदृश्य है
पहाड़ दूसरी ओर है!
(याद करते हुए पहाड़ को)
#नीहसो