मकड़ी
अक्सर सुलगने लगती हैं मेरी उंगलियाँ सिगरेट की तरह कुछ स्पर्श धुआं बनकर मेरी आंखों के नीचे बैठ जाते हैं फिर इस काई पर रातें फिसलती रहती हैं फिसलती रहती
अक्सर सुलगने लगती हैं मेरी उंगलियाँ सिगरेट की तरह कुछ स्पर्श धुआं बनकर मेरी आंखों के नीचे बैठ जाते हैं फिर इस काई पर रातें फिसलती रहती हैं फिसलती रहती
ज़िद करने के बाद माँ से मिली दो अठन्नियों में से एक मैं अक्सर खो देता था घर से दुकान के रास्ते में हाँ! मैं आसमान देखकर चलता था, हूँ
शाम होते ही लौटना था पर रात गिर आई रात कुछ उस तरह गिरी मेरे सामने जैसे सड़क पर गिर पड़ा हो पेड़ रात को कभी मैंने इस तरह गिरते
इतना मुश्किल भी नही था यादों को बाँध लेना शू लेस के साथ और जॉगिंग करते हुये झाड़ देना मन से झन्न झन्न करते दुखों का कॉलेस्ट्रॉल इतना मुश्किल भी
ईश्वर ने सोचा यह सुंदर है नदी ने सोचा यह पीछे छूटी स्मृतियों की टीस है पर्वत ने सोचा यह गर्व से नीचे देख पाने की कला है मल्लाह ने
जाने कितनी बार टूटी लय जाने कितनी बार जोड़े सुर हर आलाप में गिरह पड़ी है कभी दौड़ पड़े तो थकान नहीं और कभी बैठे-बैठे ही ढह गए मुक़ाबले में
आसमान के घर से एक बड़ा सा पत्थर मोहल्ले के बीचों -बीच गिरा देखते ही देखते वह शीर्ष मंच पर आसीन हो गया औरतें जो साहसी सड़कें बनकर चल रही
प्रेम गहरा होता गया इतना गहरा की अलग होने का डर घर कर गया डर के घर में उम्मीद, अपेक्षा, प्रत्याशा की खिड़कियां हुईं बंदिशों के दरवाज़े में फ़िक्र ने
मेरे भीतर उगती हैं नागफ़नी विद्रोह की जैसे उग आती हैं दूब मीलों तक मैं तलवार नहीं रखती न ही कोई बंदूक की गोली मैं रखती हूँ शब्द जो धंसे
हिन्दी साहित्य और सिनेमा में जो हैसियत गुलज़ार साहब की है और रही, वैसी किसी की न थी। मतलब सीधा-सीधा कला में दखलंदाज़ी। यानि गीत, कविता, नज़्म, शायरी, कहानी, पटकथा,
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