पितृसत्ता तुम्हारी रीढ़ कौन है


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आसमान के घर से एक बड़ा सा पत्थर
मोहल्ले के बीचों -बीच गिरा
देखते ही देखते वह शीर्ष मंच पर आसीन हो गया
औरतें जो साहसी सड़कें बनकर चल रही थीं
उसने अड़ंगा लगाकर उन्हें वहीं गिरा दिया
ठहाकों की छत पर खड़ी कुछ औरतें
तालियाँ बजाकर मजा लेती रहीं
आरोपों की भाषा पढ़ते-पढ़ते एक आग आई उस मोहल्ले में
थोड़ी ही देर में भभकता सूर्यमण्डल हो गई
जिन औरतों ने तेजस्वी आँखें पहनी थी
उनकों वहीं जलाने लगी
कुछ औरतें आई
और पेट्रोल के पीपे आग में डाल कर चली गईं
एक हथौड़ा था भारी भरकम हवा के दायँ कंधे पर टिका हुआ
वो उस औरत के सिर पर गिरा
जो पुरुषों की सभा में ओजस्वी भाषण दे २ही थी
कुछ औरतें बोली
अच्छा हुआ उसे सही जगह बैठने की तमीज़ नहीं थी
धीरे-धीरे तीखे नाखूनों की खेती पनपने लगी
वो वाकछ्ल का नेतृत्व करती हुई
साड़ियों की नंगी पीठ पर उगने लगी फिर उन्हें काट खाने लगी
कुछ औरतें फुसफुसा कर बोली
कितने बड़े गले का ब्लाउज पहनती थी साड़ी नाभी के नीचे बाँधती थी
ये तो होना ही था नंगी कहीं की
अभी-अभी पितृसत्ता को गालियाँ देकर
मंच से उतरी है एक औरत
अभी -अभी देश के बड़े समाचार पत्र में
पितृसत्ता पर तीखा लेख लिखा है एक औरत ने
अभी-अभी अपने पाँच साल के बेटे को
घर के बाहर सड़क पर पेशाब करना सिखाया एक औरत ने।

डॉ. उषा दशोरा की अन्य कविताएँ।

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