मेरे भीतर उगती हैं नागफ़नी
विद्रोह की
जैसे उग आती हैं दूब
मीलों तक
मैं तलवार नहीं रखती
न ही कोई बंदूक की गोली
मैं रखती हूँ शब्द
जो धंसे हुए हैं
मेरी आत्मा पर,
मुझे शब्दों को बुनना प्रिय है
मैं ओढ़ लेती हूँ
शब्दों की चादर
सामान्य से असामान्य तक के
सफ़र पर
मैंने कई कत्ल किये हैं
अपने शब्दों की धारदार चाकू से
मैंने शवों पर लहराया है
अपनी जीत का पताका,
मैं हो सकती हूँ खाली
मेरे शरीर के हर हिस्से से
परन्तु मेरी आत्मा
कभी पीछा नहीं छुड़ा पाएगी
शब्दों से
वक़्त रहते मैंने शब्दों के जरिये
स्नेह भी लुटाया है
किसी के घावों पर
शब्दों का मलहम लगाया है
मैं एक आम मनुष्य हूँ
जिसने तीर, धनुष, तलवार और तोपों
का तिरस्कार कर
संसार का सबसे बड़ा हथियार चुना
मैंने शब्दों को चुना