बचपन में स्कूल में कभी शिवाजी और सिंहगढ़ के किले की लड़ाई के बारे में पढ़ा था। ‘गढ़ आया, पर सिंह गया’ वाली लाइन न जाने क्यों हमेशा याद रही।पर इस खिताब के हक़दार का नाम याद नहीं रहा।
वैसे भी मुगलों और अंग्रेजों ने सिर्फ देश पे ही कब्जा नहीं किया, उन्होंने हमारे मानस और इतिहास पर ऐसा कब्जा किया, कि आज भी देश में दंगे, बवाल उन्हीं की याद में होते हैं और उन्हीं की भाषा और शिक्षा रोजी-रोटी की जरूरत है। उनके अलावा क्या मराठे, चोल, चालुक्य, अहोम; सब के सब, अपनी उपलब्धियों, भव्यताओं और गौरवपूर्ण इतिहास के साथ हाशिये पे चले गए।
कहानी-छत्रपति शिवाजी (शरद केलकर) को पुरुन्धर की ट्रीटी के बाद 23 किले मुगलों के हवाले करने पड़े, जिनमें कोंडाणा का किला भी है।मुग़लों ने कब्जे के वक़्त जीजाबाई का अनादर भी किया और उन्हें पूजा के मध्य बिना चप्पलों के आना पड़ा। 4 साल बाद, औरंगज़ेब एक राजपूत उदयभान (सैफ अली खान) को कोंडाणा का किलेदार बना के भेजता है।शिवाजी इस सामरिक महत्व के किले को वापस लेने के लिए योजना बनाते हैं और तानहाजी मालुसुरे (अजय देवगन) को इस अभियान का नायक बना के भेजते हैं। तानहाजी अपने पुत्र की शादी से पहले ‘स्वराज’ के झंडे को कोंडाणा में फहराने का प्रण लेते हैं।
डायरेक्शन – अच्छा है। बाकियों को थोड़ा और स्पेस मिलता तो और अच्छा होता। फ़िल्म की लेंथ 15-20 मिनट ज्यादा भी हो जाती तो चलता। कुछ दिन पहले केबीसी वालों ने शिवाजी के आगे छत्रपति ना लगाने की वजह से माफी मंगवा ली। इस फ़िल्म में एक भी बार नहीं बोला गया। तो डायरेक्टर और प्रोड्यूसर हिम्मती भी है।
एडिटिंग – फ़िल्म काफी फ़ास्ट पेस हैं। व्याख्या के लिए प्रसंग के संदर्भ को समझने हेतु नीचे पढ़ना जरूरी है। घटनाएँ तेजी से घटती हैं और समझने के लिए आप इनका इतिहास पढ़ के भी जा सकते हैं, आसानी रहेगी। फ़िल्म सीधे काम की बात करती है और ‘शंकरा’ वाले गाने के अलावा सब टू द पॉइंट है।
CGI और VFX पे की गई मेहनत दिखती है। 3D काफी सही है। दो बार तो मैं खुद सीट के नीचे डक करके तीर और भाले से बचा हूँ। फ़िल्म भव्य है और 3D में ही देखने के लिए है। टीवी पे शायद मज़ा ना आए।
बैकग्राउंड स्कोर – बढ़िया है। खून में गर्मी बढ़ाये रखता है। लगभग हर सीन में हमेशा ‘ताना ना नाना ना ताना ना नाना ना ‘ बजता रहता है।सवाल ये है अगर फ़िल्म शिवाजी के बारे में होती तो क्या ‘शिवा वा वावा वा’ बजता क्या?
कोरियोग्राफी – अजय देवगन के डांस के आगे धर्मेंद्र के ‘मैं जट यमला पगला दीवाना’ वाले या उनके बेटे के ‘यारा ओ यारा’ वाले डांस के लिए ऑस्कर का अनुमोदन करता हूँ।
क्या स्टेप्स हैं, गले की खाल पकड़ के, मूँछ पकड़ के, चुटकी वाला स्टेप्स या कुछ भी। सब देखने योग्य है।
फ़िल्म बाद में देख लेना अभी जाके शंकरा वाला गाना देख लो। मज़ा आ जाएगा।
एक्टिंग – क्योंकि फ़िल्म अजय देवगन के बैनर की है तो लगभग हर फ्रेम में वो हैं। जिसका बैट उसकी बैटिंग। फिर भी उदयभान के किरदार में सैफ छा गए हैं। पद्मावत के बाद रणवीर सिंह ने जो बेंचमार्क सेट किया है, उसकी बराबरी के लिए पीरियड फिल्मों के विलेन के लिए डायरेक्टर सोच भी नहीं रहा है कि वो मुगल है या राजपूत। विलेन को खूँखार गेट अप, काले/हरे कपड़े कपड़े, कच्चा मांस नोच के खाने वाला और वासना से भरा होना चाहिए बस। काजोल और जीजाबाई का रोल जितना भी है अच्छा है। नेहा शर्मा छोटे से रोल में राजपूतानी हैं, पर पूरी फ़िल्म दुखी रही हैं। शरद केलकर शिवाजी के रोल में जमे हैं, ये दीगर बात है, उनका भी ज्यादा रोल नहीं है।
फालतू का ज्ञान-अच्छी बात ये है कि अब तक सिर्फ राजाओं ( शिवाजी, प्रताप,अकबर, औरंगजेब आदि) की लड़ाई पे फिल्में बनती रही हैं, इस बार किलेदारों और सूबेदारों यानी की जमीनी लड़ाई लड़ने वालों पे बनी है। उम्मीद है इस लड़ाई की भविष्य में एक और नायिका ‘यशवंती’ की कहानी भी आएगी। (एनीमल प्लेनेट पे ही सही)।
हमारी फिल्में कमर्शियल होने के लिए भावनाएँ माँगती है, और इसी वजह से हम कुछ भी दिखाते हैं और उसके लिए फ़िल्म की शुरुआत में डिस्क्लेमर जरूरी हो जाता है और इसीलिए बायोग्राफिकल होते हुए भी इतिहास न हो पाती हैं, न बना पाती हैं। वरना युद्ध में अगर जेब में जगह हो तो योद्धा एक्स्ट्रा हथियार ले के जाता है, न कि एक जोड़ी चप्पल। मौका मिलते ही विलेन को डायरेक्ट मारने का तो रिवाज ही नहीं बना, इसलिए पहले सिर्फ गुप्तचर। जैसे किसी भी लड़ाई में हीरो विलेन के अड्डे पे उसके चमचों को मारता है। उदयभान सीधे रायगढ़ के किले को खत्म कर सकता था, मगर उसमें मज़ा नहीं आता। शिवाजी इतने पास से युद्ध देख रहे थे कि ऑलमोस्ट मरे हुए तन्हाजी के पास अगले सीन में पहुँच जाते हैं।
खैर, फ़िल्म बहुत सही है, कहीं बोर नहीं करती, कहानी अच्छी है, और थिएटर में ही देखने लायक है।
उम्मीद है अब इस कोंडाणा की लड़ाई के उस सिंह का नाम भी याद रहेगा (अजय देवगन को साधुवाद) और ये फ़िल्म कई और गुमनाम वीरों और हस्तियों के बारे में फ़िल्म बनाने के लिए प्रेरित करेगा।
रेटिंग : 4 आउट ऑफ 5