वो जी रही है


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वो जी रही है
उसके स्तनों में जन्म ले रहा था
एक गहरा गड्ढा
जिसने ममत्व को निचोड़ फेंका
और भर दिया था उसमें विष और मवाद
लेकिन वो जी रही है

उसके स्तन करते थे
तुम्हें आकर्षित
जब तुम देखते थे उसे
ललचायी नज़रों से
जब भीड़ में तुम अचानक
छू जाते थे उसके उभारों को
वो समेट लेती थी खुद को
वो रहती थी बेचैन
और आँखों में आँसू भर
कोसती थी खुद के
गलत शरीर, गलत उम्र, गलत त्वचा
और गलत लिंग को

आज तुम्हारी आत्मा भयभीत हो जाती है
उसे ललचायी नज़रों से देखने पर
तुम्हारी आँखों में होता है
प्रश्नवाचक चिन्ह

लेकिन वो जी रही है
अपने स्तनों से मुक्त होकर
अब उसका सीना सपाट है
उसके स्तन ने छोड़ दिया है
उसके शरीर पर एक गहरा निशान
वो फिर भी जी रही है
अब वो तुम्हें आकर्षित नहीं करती
तुम फेर लेते हो अपनी नज़रें कुंठित होकर
परन्तु वो कर चुकी है
काफ़ी पहले ही तुम्हारा तिरस्कार
वो अब भी जी रही है
क्योंकि
गलत शरीर, गलत उम्र, गलत त्वचा
और गलत लिंग से बढ़कर है
जीवन का निरंतर चलते रहना।

नन्दिता सरकार की अन्य रचनाएँ।

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