नगरवधुओं की संकरी गली में
पड़ता है पण्डित जी का वासस्थान
पूजन से पूर्व आचमन करते हुए कहते हैं
दक्षिणामुखी द्वार का प्रकोप है सब
यहाँ होना नहीं था हमें, बस प्रभु की माया है
किन्तु नगर वधुओं का गृह कपाट
खुलता है पूरब की ओर
ड्योढ़ी पर सूर्य उठाये प्रकाश की टोकरी
करता है उनका अभिनन्दन
मस्तक पर प्रश्नचिह्न की रेखा लिए
द्वार पर खड़ी वे निहारतीं स्वयं की काया
असमय क्यों आया स्तनों में उभार ?
किसने मेट दिया उनके जीवन का कौमार्य ?
कहां अस्त हुआ उनके भाग्य का सूर्य ?
यह तो शुभकर संकेत नहीं हैं
चौसठ कलाओं में निष्णात
पलछिन में परिवर्तित होती उनकी भाव-भंगिमाएँ
एक दृष्टि यदि किसी को देख लें
तो चमक उठे उनके भाग्य का शुक्रतारा
विरक्त हृदय कहां तक
गिनता फिरेगा देह का स्पर्श
वह तो उसी क्षण निस्तेज , निर्वाक हो गया
जब लिवाई गईं थी वे राज्यादेश पर
कालुष्य मन से जन्मा काम
निर्वस्त्र देह को नहीं खाता
संपूर्ण नगर की आभा को खा जाता है
क्या पूरब, क्या दक्षिण
जब कभी मंदार, मोगरे और मौलश्री की
गंध फैलेगी अंतस में
भौंरों की गुंजार से भर उठेगा हृदय
और हो चुका होगा उन पाखंडियों का अंत
जिन्होंने उन्हें स्वर्ग से निष्कासित किया
‘Abhishapt Nagar’ A Hindi Poem By Suraj Saraswati