अंतर्द्वंद्व


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व्याकुलता के इस आंगन में
किसकी बाट जोह रहा है तुम्हारा यौवन
कौन है जो तुम्हारी कण्ठध्वनि सुनने को आतुर है

वियोगिनी हो !
क्या वियोग का अर्थ नहीं जानती
यदि कोई निकट आता है
तो वह रहने की अभिलाषा के साथ नहीं आता
आने का स्वांग रचना तुम्हें कभी नहीं आया

तुम तो आई और बस गयी
जैसे मस्तिष्क में बस जाता है ज्वर
एक वैद्य ने बताया था व्रत से उतर जाता है
वह ज्वर जो उतरने वाला नहीं होता है
तुम बस इतना बतलाओ
व्रत में रहते हुए कितनी बार
व्रत तोड़ने की इच्छा से भर गई थी तुम

मोतियों की माला तुम्हारे स्पर्श की आदी हो गई है
यदि कोई और उन्हें थामेगा
टूटकर बिखर जाएगी
तुम्हारे मंत्रोच्चारण की अखण्ड श्रृंखला
कमरा गूंजता रहेगा जीवनभर

क्या फिर से बटोर पाओगी अपना क्षणभंगुर भाग्य
स्वयं को चोट पहुँचाए बिना

हमारे भाग्य में
चन्द्रमा की शीतलता से अधिक
उस पर लगे ग्रहण आयें
यह पारितोषिक है या दुर्भाग्य
एक अभिशप्त प्रकाश में प्रेम करना पड़ा हमें

‘Antardwand’ A Hindi Poem By Suraj Saraswati

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