Author: विजय बागची

विजय बागची

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,

लौटना

जो गये, उन्हें लौट आना चाहिए, लौटने से जीवन होता है परिष्कृत, व्यथन के मेघ अनाच्छादित होते हैं, और विषण्णता होती है लुप्त। क्योंकि लौटना संगम है दुःखों का, और

प्रतिस्पर्धा

अंतिम प्रहर का इंतजार ना करना पड़े, इसलिए प्रत्येक प्रहर को अंत में परिवर्तित करने का संज्ञान लेना ही पड़ता है; मर्म की बाधा जीवन की एक मात्र ऐसी बाधा

निर्वाण

हर कोई निर्वाण का पथिक होना चाहता है, परिवर्तित भावनाओं के अनुरूप व्यवस्थाएँ भी करता है, स्वयं को दया एवं मानवता की भावना से, अनुप्राणित होते देखता है, और पृरोहित

तुम्हारी स्मृतियाँ

तुम्हारे संदेश चिट्ठियों की तरह लुप्त हो रहे हैं, परन्तु तुम्हारी स्मृतियाँ दूर्वा हो उठी हैं, जिनके लिए बीजारोपण आवश्यक नहीं, वो स्वतः उग आती हैं; स्वतः होना ही नेह

तुम्हें ज्ञात है

तुम्हारी सुगंधि इतनी रमणीय है कि, कोई भी पुष्प, तुम्हारे सम्मुख आने से कतराता है; तुम्हारा सौंदर्य इतना चित्ताकर्षक है, कि देवबालाएँ भी नित्य झेंप खाती हैं; तुम्हारे स्पर्श से

स्वीकारो

विरह के अंतिम क्षणों में कहे गए शब्द, शरीर की प्रत्येक शाखाओं में विक्षोभ उत्पन्न करते हैं, कुछ को पत्तियों की भाँति टूट जाने का अवसर मिलता है, कुछ को

तुम्हारा दुःख

जो मेरे हिस्से का नहीं था, एक मात्र वही था,  सुख का कारण; हिस्से में आयी हुई चीज में, दुःख, सदैव छिपा रहता है, दुःख छिपे रहने की चीज है,

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