तुम्हारे संदेश चिट्ठियों की तरह लुप्त हो रहे हैं,
परन्तु तुम्हारी स्मृतियाँ दूर्वा हो उठी हैं,
जिनके लिए बीजारोपण आवश्यक नहीं,
वो स्वतः उग आती हैं;
स्वतः होना ही नेह का संतत्व है;
तुम्हारे जाने के बाद मुझे ऐसा कभी न लगा,
कि तुम मुझे खाली कर गई या मैं खाली हो जाऊँगा,
तुमने जाकर भी सम्पूर्णता की सिद्धि दी,
स्मृतियों का ऐसा संग्रह दिया,
जिनसे सदैव अनंत का बोध हो,
फिर अनंत!
अथवा अनंत होने की संभावना,
नेह का एक अंश ही तो है;
तुम्हारी अनुपस्थिति में, उपस्थिति का दायित्व
ये चक्षुपटलें उठाती हैं,
मैं जब भी आँखें बंद करता हूँ,
तुम्हारी छवि पलकों पर और
तुम्हारी स्मृतियाँ हृदय के आसन्न होती हैं,
और आसन्नता तो नेह की प्रथम कोटि है;
तुम्हारे न होने की कल्पनाएँ,
मात्र कल्पनाएँ हैं,
तुम्हारी वास्तविकता स्मृतियों से है,
जो मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ते,
अनन्य सुभीता व स्थिरता बनी रहती है,
जोकि नेह का एक उत्कृष्ट द्योतक है;
आसन्नता, संतत्वता, सम्पूर्णता, सुभीता व स्थिरता,
यदि नेह को निदेशित व प्रतिफलित करती हैं,
तो इस नेह का उद्गम हो तुम और तुम्हारी स्मृतियाँ।
‘Tumhari Smritiya’ Hindi Poem by Vijay Bagchi